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इसके फलस्वरूप आपने साध्वीप्रमुखा जेठांजी के साधना-काल तक मातुश्री छोगांजी और साध्वी कानकुमारीजी के पास उनसे कम साध्वियां रखीं। जब कभी प्रसंग आता, आप साध्वीप्रमुखा की विशेषताओं का उल्लेख करते। वृद्धावस्था के कारण जब साध्वीप्रमुखाश्रीजी राजलदेसर में स्थिरवासिनी हो गईं, तब भी शीतकाल में आप कई बार वहां पधार जाते और फरमाते-'जेठांजी में साध्वियों को परोटने की अच्छी क्षमता है। शीतकाल में इनके पास रहने की इच्छा होती है। क्योंकि यहां रहने से साध्वियों संबंधी मेरा भार हल्का हो जाता है।'
वास्तव में साध्वीप्रमुखाश्री जेठांजी का जीवन ऐसा ही था। उन्होंने संघ और संघपति के प्रति सर्वात्मना समर्पित रहकर शासन की सेवा की।
१०६. साध्वीप्रमुखाश्री झमकूजी अपने युग की विलक्षण साध्वी थीं। यद्यपि आपने पुस्तकीय शिक्षा नहीं पाई, फिर भी आपका अनुभव ज्ञान काफी प्रौढ़ था। लोगों को परोटने और उनके दिल को जीतने की बेजोड़ कला उनके पास थी। श्रावकों की वंदना नामोल्लेखपूर्वक स्वीकार कर वे अनुपम स्मरण-शक्ति का परिचय देती रहीं। हस्त-लाघव और कार्य-कुशलता के द्वारा उन्होंने कला के क्षेत्र में अनेक कीर्तिमान स्थापित किए थे। उनकी कला में नई स्फुरणा, सौष्ठव और सौन्दर्य का निखार था। पुस्तक और रजोहरण बांधने में भी उनकी कला विलक्षण थी। प्रत्येक कार्य के संपादन में वैसी कला अन्य साध्वियों में कम मिलती है।
___ आचार्यश्री कालूगणी की दृष्टि में उनकी कला का विशेष स्थान था। एक बार संतों की एक पात्री दूसरी पात्री के अंदर घुस गई। अनेक प्रयत्नों के बावजूद वह नहीं निकली। कालूगणी ने फरमाया-'झमकूजी को दो, वे निकाल देंगी।' उन्होंने कुछ ही समय में पात्री निकालकर दे दी। उनकी कलाप्रियता के और भी अनेक उदाहरण हैं। ___ ११०. साध्वीश्री खूमांजी प्रारंभ से ही मातुश्री छोगांजी की सेवा में रहीं। अपनी सेवाभावना और कर्तव्य-परायणता के आधार पर उन्होंने कालूगणी का विश्वास प्राप्त कर लिया। कालूगणी साध्वी खूमांजी को मातुश्री छोगांजी की सेवा में रखकर निश्चित हो गए। उन्होंने सेवा के साथ लेखन कार्य में अच्छी अभिरुचि दिखाई। जयाचार्य कृत भगवती सूत्र की जोड़ का लेखन कर उन्होंने एक इतिहास का पुनरावर्तन कर दिया। इनसे पहले साध्वी-समाज में साध्वीप्रमुखाश्री गुलाबांजी ने भगवती की जोड़ लिखी थी। संतों में मुनि कालूजी (बड़ा) और मुनि कुन्दनमलजी ने भगवती की जोड़ लिखी।
१११. साध्वी प्रतापांजी और साध्वी हुलासांजी (सरदारशहर) ने भगवती सूत्र
३३४ / कालूयशोविलास-२