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स्थान पर खड़ा होना आवश्यक है। उस दिन धर्मशाला का प्रांगण खचाखच भरा था, पर प्रायः व्यक्ति खड़े नहीं हुए। खड़े न होने के पीछे उनका दृष्टिकोण था-उनके बैठने के स्थान में कोई दूसरा आकर न घुस जाए।
कालूगणी ने प्रवचन-सभा का दृश्य देखा, लोगों की मनःस्थिति को परखा और नमस्कार महामंत्र का पाठ पूरा कर दिया। प्रवचन प्रारंभ करने से पूर्व उन्होंने श्रावक समाज को लक्षित कर फरमाया-'नमस्कार मंत्र का उच्चारण हो और श्रावक बैठे रहें, यह नई पद्धति कहां से आई है? हमारे श्रावकों में इतना भी शिष्टाचार नहीं रहा अथवा वे प्राचीन परंपराओं को भूल गए? प्राचीन पद्धति की अवहेलना संस्कृति की अवहेलना है। कहीं भी ऐसी पद्धतियों का अतिक्रमण नहीं होना चाहिए।' सरदारशहर के श्रावक समाज को इस घटना से ऐसी प्रेरणा मिली कि उसके बाद वे कहीं भी होते, नवकार मंत्र का उच्चारण सुनकर बैठे नहीं रह सकते।
१०४. कालूगणी एक महान आचार्य थे। उनकी कृपा और मार्गदर्शन ने न जाने कैसे-कैसे व्यक्तियों को बुराई से बचाया है और जीवन की सही दिशा दी है। शिवजीरामजी और छोटूलालजी बैंगानी बीदासर के श्रावक थे। प्रारंभ से ही उनके जीवन का क्रम थोड़ा विचित्र-सा था। वाग्-संयम की बात तो उन्होंने सीखी ही नहीं थी और उनका स्वभाव भी नटखट था। वे व्यक्ति कालूगणी के निकट संपर्क के कारण सब प्रकार के व्यसनों से दूर रह गए। वे स्वयं बहुत बार कहते थे-'हम तो कालूगणी की कृपा से ही बचे हैं, अन्यथा पता नहीं कहां चले जाते।' महान व्यक्तियों का निकट सान्निध्य ही व्यक्ति को कहीं से कहीं पहुंचा देता है।
१०५. बीदासर में अगरचंदजी और गणेशजी यति तेरापंथ धर्मसंघ के खिलाफ अनर्गल बात करते रहते थे। उनकी जघन्य मनोवृत्ति कुछ श्रावकों को उत्तेजित कर देती और वे उनका मुकाबला करने के लिए उद्यत हो जाते। उस परिस्थिति में पहले आचार्यश्री डालगणी और बाद में कालूगणी ने श्रावकों पर पूरा नियंत्रण रखा, अन्यथा वातावरण में आए हुए उफान को शान्त कर पाना बहुत कठिन था।
घटना वि. सं. १६६४ की है। आचार्यश्री डालगणी पंचमी समिति पधार रहे थे। कई मुनि और श्रावक साथ में थे। यति अगरचन्दजी अपने उपाश्रय की भींत पर बैठे थे। वे बोले-'आगे मुर्दा जा रहा है और पीछे कंधा देने वाले जा रहे हैं। डालगणी के साथ चलनेवाले लोगों ने यह बात सुनी और उनका खून उबल उठा। वे यतिजी से भिड़ने के लिए कटिबद्ध हो गए। किन्तु डालगणी के दृष्टिकोण को समझ अपने आवेश को पी लिया।
३३० / कालूयशोविलास-२