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________________ की वागशक्ति विलक्षण थी, पर उन्हें सही स्थिति की अवगति भी देनी थी। अतः कालूगणी बोले-'विद्वद्वर! हम आपकी विद्वत्ता का अंकन करते हैं। किंतु हम अधिक बोलने से किसी को पण्डित नहीं मानते और कम बोलने पर मूर्ख नहीं मानते। हमारे मुनि आपके काव्य में दोष नहीं निकाल रहे हैं, जानकारी की दृष्टि से पूछ रहे हैं।' कालूगणी के ये शब्द सुनते ही पण्डितजी मौन हो गए। उन्हें अनावश्यक रूप में उत्पन्न अपने रोष पर पश्चात्ताप हुआ। दूसरे दिन वे फिर प्रवचन के समय उपस्थित हुए और कालूगणी की स्तुति में कुछ श्लोक बनाकर लाए। पण्डितजी ने श्लोक परिषद में पढ़कर सुनाए तथा पिछले दिन की घटना के लिए क्षमायाचना की। पण्डितजी द्वारा विरचित दो श्लोक यहां उद्धृत किए जा रहे हैं सायंतने गतदिने भवदीयशिष्यैःसाकं विवादविषयेऽत्र यते! प्रवृत्ते। यत्किंचिदल्पमपि जल्पितमस्तु कोष्णं, क्षन्तव्यमेव भवतात्र कृपापरेण ।। विशदबोध - विशुद्धमतिप्रभा, धवलिता ललिता वचनावलिः । भगवतो मुखपद्मविनिःसृता, सुमुदमातनुतेऽतनुतेजसः ।। ८६. कालूगणी की परखने की क्षमता बड़ी विलक्षण थी। स्वभाव, योग्यता आदि के साथ वे बोली की परख भी बहुत जल्दी कर लेते। जब कभी संतों की दीक्षा होती, कालूगणी उनसे श्लोक आदि सुनते और फरमाते-'इसकी बोली गहगी है, इसकी लिपळी है, इसकी बरड़ी है और इसकी स्पष्ट है।' उनकी परख के अनुसार मुनि डूंगरमलजी (सरदारशहर) की बोळी बरड़ी थी। मुनि गणेशमलजी (गंगाशहर) की बोली लिपळी थी। मुनि नथमलजी, बुद्धमलजी आदि की बोली सतोली थी और मुनि चंपालालजी (लाडनूं) की बोली गहगी थी। ६०. मुनि भीमराजजी विद्यारसिक और श्रमशील मुनि थे। उनका उच्चारण बहुत शुद्ध और स्पष्ट था। वे बाल साधुओं को कुछ न कुछ सिखाते रहते थे। एक बार उन्होंने कुछ मुनियों को अन्वय सहित 'सिन्दूरप्रकर' सिखाया। कालूगणी को इस बात की अवगति मिली। उन्होंने सब संतों को बुलाकर उनसे 'सिंदूर-प्रकर' के श्लोक सुने। श्लोक सुनकर कालूगणी खुश हुए। उन्होंने सीखने वाले सब संतों परिशिष्ट-१ / ३२१
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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