SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ताको मत देवो ऐसी अंतराय डार दी। 'तुलसी' भनंत ताको तेरापंथ मतहू की, बाकवी न पूरी यूं ही कूड़ी गप्प मार दी।। ऐसी-ऐसी व्यर्थ बात तान मत पक्षपात, करते हमेश जाकी बुद्धि जो बिगड़गी। ताकी सुन वाच नहिं साच-झूठ जांच करै, लोकन में एक 'लहतान' आन बड़गी।। एक भेड़ बोलै 'भ्यां' दजी पिण बोलै 'भ्यां'. तीजी और चौथी सब भाज-भाज भड़गी। 'तुलसी' भनंत समझावै अब काकों काकों, सारै ही जहान आ तो कुवै भांग पड़गी।' ३४. विक्रमादित्य अपने समय के सुप्रसिद्ध, उदार और न्यायी राजा थे। उन्होंने अपने शासनकाल में नई परंपराओं का सूत्रपात किया। अपने-अपने वर्ण (जाति) में विवाह करने की परंपरा भी इनके द्वारा स्थापित की गई। इस स्थापना के पीछे एक किंवदंती है, जो स्वयं विक्रमादित्य के जीवन से जुड़ी हुई है। घटना इस प्रकार है लक्षाधीश और कोट्यधीश दो श्रेष्ठियों में घनिष्ठ मित्रता थी। मैत्री उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होती गई। अग्रिम पीढ़ियों तक मैत्री को स्थायित्व देने के लिए उन्होंने अपने पुत्र-पुत्री का संबंध करने का निर्णय ले लिया। निर्णय कागजी कार्यवाही में अंकित कर वे समय की प्रतीक्षा करने लगे। ____लक्षाधीश सेठ अपने पुत्र और पत्नी को छोड़ अकाल-मृत्यु को प्राप्त हो गया। श्रेष्ठी की मृत्यु के बाद व्यवसाय की पूरी संभाल न होने के कारण उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर होती गई। कोट्यधीश सेठ ने सोचा-अब हमारे बच्चों का परस्पर संबंध हो, ऐसी स्थिति नहीं रही है। पुत्री का विवाह कहीं अन्यत्र करने से झगड़ा बढ़ सकता है। अच्छा हो मैं अपनी बेटी का विवाह महाराजा विक्रमादित्य के साथ कर दूं। राजा के पास संवाद पहुंचा। आगे-पीछे की कोई जानकारी न होने से उन्होंने उस संबंध को स्वीकार कर लिया। शुभ मुहूर्त देख विवाह का दिन निश्चित कर दिया। राजा की बारात लक्षाधीश सेठ के मकान के निकट पहुंची। श्रेष्ठिपुत्र ने अपनी माता से कहा-'मां! राजा की सवारी आ रही है। देख लो। मां की आंखों में आंसू आ गए। पुत्र ने इसका कारण पूछा तो वह बोली-'बेटा! यह तेरी दुर्बलता परिशिष्ट-१ / २६१
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy