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________________ वे रत्न नहीं हैं, उनकी कोई कीमत नहीं है। पर उस समय में यह बात कह देता तो तुम्हारी मां तुम्हारे खाने-पीने में कटौती करती, अच्छी शिक्षा की व्यवस्था नहीं करती तथा मेरे प्रति संदिग्ध भी हो जाती। अब तुम स्वयं समझदार हो गए हो, सारी स्थितियां अनुकूल हो गईं, तब मैंने उस गठरी का भेद खोलना उचित समझा। ३१. बच्चों ने शैतानी की। मां ने उनको समझाया, पर वे नहीं माने। मां ने डांटा, किंतु उन पर असर नहीं हुआ। बच्चों की शैतानी से हैरान होकर वह उन्हें तलघर के पास ले गई। तलघर खोला गया। सीलन, बदबू और घोर अंधकार देख बच्चे थोड़े सकपकाए। मां ने उन्हें अंदर धकेलने का अभिनय करते हुए कहा-'जाओ तलघर में और भोगो अपनी करणी का फल। तलघर में एक हाबू रहता है। वह तुम्हें खा जाएगा, तब तुम्हारी शैतानी दूर होगी।' बच्चे संवेदनशील थे। उनके मन में हाबू की कृत्रिम विभीषिका घर कर गई। हाबू से डरकर उन्होंने शैतानी न करने का संकल्प व्यक्त किया। एक-दो बार फिर ऐसा ही प्रसंग आया और मां ने हाबू का भय दिखाकर उनको शैतानी करने से रोक दिया। बच्चों ने न कभी हाबू देखा और न कभी उसके संबंध में कोई कल्पना ही की। फिर भी एक अज्ञात भय उनके मन में गहरा होता जा रहा था। अब वे किसी भी अंधेरे स्थान में जाते समय घबराने लगे। बच्चे बड़े हुए। उनके मन का भय भी बड़ा होता गया। एक दिन उनकी मां ने कहा-'बच्चो! तलघर खोलकर अमुक चीज ले आओ।' बच्चे एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे, पर वहां जाने के लिए तैयार नहीं हुए। मां ने दूसरी और तीसरी बार कहा, पर बच्चों के कदम नहीं उठे तो वह झल्लाकर बोली-'तुम सबको आज हो क्या गया है? घर का कोई काम नहीं करते हो, मैं अकेली क्या-क्या कर सकूँगी?' बच्चे सहमते हुए बोले- 'मां! हम तुम्हारा सब काम कर देंगे, पर तलघर में नहीं जाएंगे। वहां जो हाबू रहता है, वह हमें खा जाएगा।' ३२. एक बाल जामाता अपने ससुराल जा रहा था। कुछ लोगों ने उसको समझाया कि ससुराल में अधिक भोजन करना बुरा माना जाता है। ससुराल पहुंचकर वह सब लोगों से मिला। भोजन करने बैठा और दो-चार ग्रास लेकर उठ गया। मध्याह्न में उसने कुछ नहीं लिया। शाम का भोजन भी बहुत हल्का किया। रात घिरते-घिरते वह भूख से व्याकुल हो उठा। उसने अपने साथ आए नाई को जगाया और कहा- 'भूख से प्राण निकल रहे हैं, कुछ खाने को दो।' नाई बोला-'सवेरा परिशिष्ट-१ / २८६
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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