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तीर्थंकरों की वाणी का प्रभाव अनुपमेय होता है। हजारों प्रयत्नों से जो काम संभव नहीं होता, वह तीर्थंकरों के समवसरण में सहज रूप से घटित हो जाता है। जन्मजात शत्रुभाव रखने वाले प्राणी भी वहां मैत्री की धारा में बह जाते हैं। तीर्थंकरों के इस अतिशय को रूपायित करते हुए कवि ने लिखा है
ईभारी छारी अहो, वारि पिये इक घाट। मजारी मूषक मिले, खिलै प्रेम की बाट ।। अश्व-महिष अहि-नकुल किल, हिलमिल करत मिलाप।
जिनवाणी रो ही सकल, अद्भुत प्रौढ़ प्रताप।। कृति में एक ओर कवित्व का उत्कृष्ट निखार है तो दूसरी ओर पात्रों के अनुरूप साधारण बोलचाल की भाषा के प्रयोग अत्यंत मनोहारी हैं। माता-पुत्र का यह संवाद कितना सुरुचिपूर्ण और हृदयग्राही है
मां! ओ तन सुकुमार, चरण कमल कोमल अतुल। पय अलवाण विहार, परम पूज्य क्यूंकर करै? जम्पै जननी जात! पूज्य भाग्यशाली प्रवर। पग-पग पर प्रख्यात, पुण्यवान रै नौ निधि ।। मैं पूछ्यो ए मां! आं पूजी म्हाराज रै। चेहरै री आभा, पळपळाट पळपळ करै।। बोलै मां, बेटा! के बातां आंरी करां। पुनवानी के ठा कठै किती संचित करी।।
कुण होसी पाछै, आं पूजी म्हाराज रै? उत्सुकता आ छै, मनै बता दै मावड़ी! बोली तड़ाक दे'र, लाल आंख कर मां मनै। खबरदार है फेर, इसी बात कब ही करी।। तपो दिवाली कोड़, आपां रा ॐ पूज्यजी।
मेटो खलता-खोड़, सारां री शासणपती।। 'कालूयशोविलास' की भाषा संस्कृतनिष्ठ राजस्थानी है। कवि के मस्तिष्क में अपने कार्यक्षेत्र और चिंतन की भांति भाषागत संकीर्णता भी नहीं है। इसलिए जोधपुरी, उदयपुरी, बीकानेरी, हरियाणवी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाओं के प्रयोग भी राजस्थानी भाषा को समृद्धि दे रहे हैं।
१८/कालूयशोविलास-२