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________________ मघवागणी के बाद कालूगणी ने सोलह वर्ष तक आचार्यश्री माणकगणी और डालगणी के नेतृत्व में विकास के अनेक नए आयाम उद्घाटित किए, फिर भी मघवागणी का अभाव उन्हें बराबर खलता रहा। जहां तक मुझे याद है, इस अभाव की अनुभूति गुरुदेव को अंतिम समय (वि. सं. १६६३) तक होती रही। जब कभी आप मघवागणी के जीवन-प्रसंगों में अवगाहन करते, आपकी आंखें नम हो जातीं। उस समय की अंतः-संवेदना को हम लोग स्पष्ट रूप से पढ़ लेते और बहुत बार कालूगणी के जीवन की गहराइयों में उतरकर मघवागणी से साक्षात्कार कर लेते। पूज्य गुरुदेव कालूगणी मघवागणी के सक्षम प्रतिनिधि ही नहीं, सर्वांगीण प्रतिबिंब थे। उन्होंने अपने जीवन में और किसी का अनुकरण नहीं किया। पर जिनका किया, समग्रता से किया और कई अंशों में तदनुरूप जीवन जिया। कालूगणी ने अपने जीवन में अनेक आरोहण-अवरोहण देखे, पर अपने विकासशील व्यक्तित्व पर तनिक भी आंच नहीं आने दी। अनुकूल और प्रतिकूल हर स्थिति को अपने अनुकूल ढालते हुए वे आगे बढ़ते रहे। उनकी अर्हता का अंकन कर आचार्यश्री डालगणी ने वि. सं. १६६६ में उनको अपना उत्तराधिकारी निर्णीत कर दिया। भाद्रव शुक्ला पूर्णिमा की पूर्ण चंद्रोदयी संध्या ने पहली बार उनका अभिवादन कर स्वयं को कृतार्थ अनुभव किया। आचार्यपद पर आसीन होते ही कालूगणी ने अपने उदीयमान धर्मसंघ का एक समीचीन भावी रेखाचित्र तैयार कर लिया। उस रेखाचित्र में उन्होंने धर्मसंघ के संबंध में जो-जो संभावनाएं और कल्पनाएं कीं, लगभग साकार हो गईं। एक सफल अनुशास्ता का व्यक्तित्व निर्मित कर कालूगणी ने अपने युग को स्वर्णिम युग के रूप में प्रस्तुति दी। __जैन-दर्शन के अनुसार परिवर्तन सृष्टि का अवश्यंभावी क्रम है। यह दो प्रकार से घटित होता है-सहज और प्रयत्नपूर्वक। कालूगणी के युग में कुछ परिवर्तन स्वाभाविक रूप में हुए, पर सलक्ष्य प्रयत्नपूर्वक किए गए परिवर्तन धर्मसंघ के लिए वरदान सिद्ध हो गए। एक छोटे-से परिवेश में विकासशील छोटा-सा धर्मसंघ इतना स्फुरणाशील हुआ कि श्रद्धालु और तटस्थ व्यक्तियों के अंतःकरण में विस्मय और प्रसन्नता की धाराएं बहने लगीं। मेरी दृष्टि से ऐसा कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा, जिसमें नवजीवन भरने के लिए कालूगणी ने अपने वरद चिन्तन का उपयोग न किया हो। कालूगणी ने अपने समय में साधुचर्या, साधना, शिक्षा, कला, साहित्य, दर्शन, भाषा, प्रचार, यात्रा आदि अनेक क्षेत्रों में नए उन्मेष दिए। इसके साथ उन्होंने अपने धर्मसंघ की मर्यादा-निष्ठा और अनुशासन-बद्धता को कभी क्षीण नहीं होने ८ / कालूयशोविलास-२
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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