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का अन्वय सहित अर्थ करते। उसी चातुर्मास में मुनि सोहनलालजी के जीवन में एक दुर्घटना घटी, पर वे उसमें बच गए। किसी भी कारण से सही मार्ग छूटने के बाद पुनः सन्मार्ग पर आने के लिए उन्होंने जिस धृति और सहिष्णुता का परिचय दिया, उनका इतिहास बन गया।
चातुर्मास के बाद कालूगणी आसपास के गांवों में विहार कर मर्यादा-महोत्सव के लिए सुजानगढ़ पधारे। वहां कालूगणी द्वारा संघीय परम्परा के विरुद्ध प्ररूपणा करने की गलती पर मुनि रिखिरामजी पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की गई।
दो वर्षों से थली संभाग में स्थानकवासी साधु घूम रहे थे। वे जहां भी गए, उन्होंने तेरापंथ की मान्यताओं के विरोध में प्रवचन किए। भ्रमविध्वंसन और अनुकम्पा की चौपई जैसे तेरापंथ के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के खण्डन में सद्धर्ममंडन और अनुकम्पा विचार, अनुकम्पा पंथ आदि ग्रन्थों का निर्माण किया। अनेक पैम्फलेट और पुस्तिकाएं प्रकाशित करवाईं। चर्चा-वार्ताएं भी की। किन्तु उनका कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला। उस स्थिति में महोत्सव के अवसर पर बे सुजानगढ़ पहुंचे और पुनः चर्चा करने की चर्चा करने लगे।
कालूगणी पहले ही निर्णय ले चुके थे कि ज्ञान-वृद्धि के लक्ष्य को छोड़कर केवल वाद-विवाद की दृष्टि से चर्चा के अखाड़े में नहीं उतरना है। अपनी मान्यताएं प्रस्तुत करने का अवसर हो तो, शान्ति के साथ प्रवचन में विवेचन किया जा सकता है। इधर-उधर से चर्चा के स्वर उठे, पर उसका प्रसंग नहीं आया। मर्यादामहोत्सव सानन्द सम्पन्न हो गया।
कालूमणी ने श्रावकों को संकेत दिया कि अब वे विवाद के लिए नहीं, पर प्रश्नोत्तर के रूप में चर्चा कर सकते हैं। उस समय सरदारशहर के तत्त्वज्ञ श्रावक नेमीनाथजी सिद्ध कुछ श्रावकों के साथ आचार्यश्री जवाहरलालजी महाराज के पास गए। उन्होंने विनम्रता के साथ प्रश्न किया कि मिथ्यात्वी की सक्रिया भगवान की आज्ञा में है या आज्ञा से बाहर ? आचार्यजी जानते थे कि सिद्धजी का सैद्धान्तिक ज्ञान बहुत ठोस है। इसलिए उन्होंने उस प्रश्न को यों ही टाल दिया। इन सब तथ्यों को बारहवें गीत में पढ़ा जा सकता है।
तेरहवें गीत में गंगाशहर चोखले का प्रवास, चातुर्मास और श्रीडूंगरगढ़ का मर्यादा-महोत्सव वर्णित है। बीकानेर-प्रवास में कुछ मूर्तिपूजक लोग यति जयचन्दजी को साथ लेकर आए। उन्होंने प्रश्न किया कि तेरापंथ के अनुसार कितने आगम मान्य हैं ? कालूगणी ने द्वादशांगी और उससे संवादी आगमों को मान्य बताया। प्रश्न पूछनेवाले किसी पूर्वाग्रह से बंधे हुए नहीं थे। उन्होंने कालूगणी के उत्तर से सन्तुष्टि का अनुभव किया। भीनासर में कुछ स्थानकवासी श्रावकों ने श्रावक
कालूयशोविलास-१ / ४७