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________________ कालूगणी से उपदेश दिलाने की थी और वह भी कालूगणी स्वयं आकर प्रार्थना करे तो । कालूगणी ने मंत्री मुनि से कहा था कि वे गुरुदेव से निवेदन कर दें कि व्याख्यान का प्रारंभ कोई भी संत कर देंगे; किंतु इस बात का डालगणी ने कोई उत्तर नहीं दिया तो कालूगणी ने सोचा - गुरुदेव की नई-नई गीतिकाएं फरमाने की इच्छा होगी, इसलिए स्वयं उपदेश फरमाते हैं । यह चिंतन कर उन्होंने कभी जाकर निवेदन किया नहीं । महोत्सव के अवसर पर जब यह रहस्य खुला तब समझने वाले समझ गए कि चार मास तक डालगणी ने उपदेश क्यों दिया । २४. डालगणी द्वारा लिखित पत्र - भिक्षु पाट भारीमाल, भारीमाल पाट रायचन्द, रायचन्द पाट जीतमल, जीतमल पाट मघराज, मघराज पाट माणकलाल, माणकलाल पाट डालचन्द, डालचन्द पाट कालू । विशेष आज्ञा प्रमाणै चाल्यां फायदो होसी । सं. १६६६ प्रथम श्रावण बदि एकम, रविवार । २५. आत्मा की अच्छी या बुरी प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट सुख-दुःख और आवरण के हेतुभूत पुद्गलों को कर्म कहा जाता है । वे संख्या में आठ हैं I १. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयुष्य ६. नाम ७. गोत्र ८. अन्तराय २६. आत्मा की क्रमिक विशुद्धि का नाम गुणस्थान है। इसको जीवस्थान भी कहा जाता है । गुणस्थान चौदह हैं। इनमें आठवें गुणस्थान का नाम निवृत्तिबादर गुणस्थान है। इसे 'अपूर्वकरण' भी कहा जाता है । आत्मविकास की अग्रिम भूमिकाओं में पहुंचने के लिए यहीं से दो श्रेणियां निकलती हैं। यहां से क्षपक श्रेणी लेकर चलनेवाला साधक उत्तरोत्तर गति करता हुआ चौदहवीं भूमिका पारकर मुक्त हो जाता है। इस गुणस्थान में कुछ बातें अपूर्व होती हैं, इसलिए इसके 'अपूर्वकरण' नाम की सार्थकता है। परिशिष्ट-१ / २६५
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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