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महारानी अपने पति की सहज धार्मिकता से इतनी प्रभावित हुई कि अब उसने अपने मन की समस्त कड़वाहट धोकर राजा के प्रति अपनी शिकायत को सदा-सदा के लिए समाप्त कर दिया।
२२. बीदासर के ठाकुर हुकमसिंहजी ने वि. सं. १६६० में बीदासर में निम्नलिखित संस्कृत श्लोक डालगणी के सामने प्रस्तुत किया। डालगणी ने उसके अर्थ-बोध हेतु कालूगणी को निर्देश दिया। इस श्लोक से कालूगणी को संस्कृत भाषा के गंभीर अध्ययन की प्रेरणा मिली। हमारे धर्मसंघ में संस्कृत-विकास में यह श्लोक बहुत बड़ा निमित्त है। इसमें इक्कीस क्रियाएं गुप्त हैं
दोषांस्त्वमरुणोदये रतिमितस्तन्वीरयातः शिवं, यामैाम तथाः फलान् यदशुभं त्वय्यादृतेगे चकाः। नारामं तम जाप योध रहितं मारस्यरंगा हृदः, सो भाधी गृहमेधिनाऽपि कुविशामीशोऽसि नन्दाधिभूः ।।
(इति एकविंशतिक्रियागुप्तम् काव्यम्) २३. डालगणी कभी-कभी ऐसा प्रशस्त विनोद करते थे कि औरों को चौंका देते। एक बार शीतकाल में बहिर्विहारी संतों की उपस्थिति में आपने मुनि पृथ्वीराजजी, फोजमलजी, रामलालजी, छबीलजी आदि अनेक अग्रगण्य मुनियों को खड़ा कर प्रश्न किया-'आपके साथ कितने संत हैं और इनमें उपदेश कौन-कौन देते हैं?
___ डालगणी के निर्देशानुसार एक-एक मुनि ने खड़े होकर अपने दल में उपदेशक मुनि का विवरण प्रस्तुत कर दिया।
सबकी बात सुन डालगणी बोले-'तुम लोग तीन-तीन संत हों, फिर भी सबके पास उपदेश देने वाले संत हैं। हमारे पास इतने साधु हैं, पर कोई उपदेश देनेवाला नहीं है। इसलिए चातुर्मास में मैंने ही उपदेश दिया और मैंने ही रामचरित्र का व्याख्यान दिया।'
मधुर विनोद की यह बात सुनते ही संतों में हंसी और विस्मय की धाराएं एक साथ बहने लगीं।
घटना वि. सं. १६६४ बीदासर चातुर्मास की है। आपने रात्रिकालीन व्याख्यान में रामचरित्र शुरू किया। व्याख्यान से पहले नई-नई औपदेशिक गीतिकाएं सुनाने लगे। मंत्री मुनि ने निवेदन किया-'आपकी मर्जी हो तो उपदेश कोई मुनि दे देगा। व्याख्यान का परिश्रम तो आपको होता ही है, फिर यह अतिरिक्त श्रम क्यों कर रहे हैं?' मंत्री मुनि का निवेदन डालगणी ने स्वीकार नहीं किया। आपकी मर्जी
२६४ / कालूयशोविलास-१