________________
२१. महारानी ने अपने पति को धार्मिक बनाने के लिए साधु-सन्तों से मार्गदर्शन पाया, देवों की मनौतियां कीं, जप किया, संकल्प किया, पर राजा धार्मिक उपासना में दो क्षण का समय लगाने के लिए भी सहमत नहीं हुआ । राजकीय व्यस्तता से निवृत्त होकर वह महलों में पहुंचता। वहां रानी उसके स्वागत में पलकें बिछाए बैठी रहती। परस्पर मधुर संबंधों के बावजूद रानी के मन में एक कड़वाहट भरी रहती । जब-तब अवकाश पाकर रानी कहती - 'राजन! आप मेरे लिए एक बार भगवान का नाम ले लीजिए।' पर राजा के मन पर रानी के प्रयत्नों से कोई प्रभाव नहीं हुआ।
दिन-पर-दिन निकलते गए। वर्षों का समय पूरा हो गया । एक दिन रात को अर्ध-निद्रावस्था में राजा के मुंह से निकल पड़ा - 'हे भगवान!' रानी के कानों में ये शब्द पड़े और वह पुलकन से भर गई । राजा के उठने से पहले ही उसने शहर में उत्सव मनाने की घोषणा करवा दी । राजसभा में पहुंचने पर राजा ने उत्सव की चर्चा सुनी। राजा ने जानना चाहा कि आज यह आकस्मिक उत्सव क्यों मनाया जा रहा है? किसी को कुछ पता नहीं था । कोई कहे भी तो क्या ? आखिर बात महारानी के आदेश पर जाकर टिकी ।
महाराज ने महारानी से उत्सव का कारण पूछा। महारानी बोली- 'आज का दिन बड़ा शुभ दिन है। लंबी प्रतीक्षा के बाद मेरा स्वप्न फला है । आज रात आपने भगवान का नाम लिया था।' राजा यह बात सुनकर उदास हो गया। उसने दुःखी मन से कहा-‘आज मेरा एक चिरपोषित संकल्प टूट गया ।' महारानी बोली- 'मुश्किल से तो भगवान का नाम लिया और उस पर यह दुःख ! ऐसा कौन-सा संकल्प था आपका?'
राजा ने अपने संकल्प के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए कहा - 'मैं भगवान के नाम-स्मरण की अपेक्षा उनके आदर्शों पर चलना पसन्द करता हूं। जो व्यक्ति दिन-रात भगवान का नाम लेते हैं, पर बुराई से मुक्त नहीं होते, उनका क्या भला हो सकता है? तुम मुझे बार- बार भगवान का नाम लेने की प्रेरणा देती हो । क्या तुमने मेरे जीवन को निकटता से नहीं देखा ? शासक होने पर भी मैं आक्रोश, अन्याय, संग्रह और शोषण से बचता रहा हूं। मेरे जीवन का एक क्षण भी ऐसा नहीं जाता होगा, जब मुझे भगवान की स्मृति न हो। हां, ऊपर से नाम न लेने का संकल्प मैंने जान-बूझकर लिया है। इस संकल्प के द्वारा मैं भगवान को भीतर रखना चाहता हूं और प्रत्यक्ष रूप में काम करता हुआ अपना कर्तव्य निभा रहा
हूं।'
परिशिष्ट-१ / २६३