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३. निज जीवन में झांकिया, किता उतार-चढ़ाव।
(पर) शासण-रंग मजीठ ज्यूं, रम्यो सन्त सद्भाय ।। ६. बीदासर-निवासी सेठ शोभाचन्दजी बैंगानी के संबंध में आचार्यश्री तुलसी द्वारा कथित सोरठे
१. सौभागी शिरमोड़, श्रावक शोभाचन्दजी।
कयवन्ना री जोड़, बैंगाणी बीदाण रो।। . २. कदे न खाटी बेठ, देशावर कमज्या करण।
(पर) पळ्यो घणां रो पेट, शोभा रै सौभाग्य स्यूं।। ३. एक पगरखी लार, खुलती बीसां पगरख्यां।
बड़ो निगर्व विचार, पर-दुख निज-दुख समझतो।। ४. पात्र दान अरु शील, सेवा रो लाहो लियो।
लिछमी सदा सलील, सेठ हाथ हेढ़ रही।। ५. अतिथी आयो गेह, कदे न भूखो जावतो। - साधर्मी प्रति स्नेह, उदाहरण मिलणो कठिन ।। ६. आचार्जी री सार, सेवा सझतो ठाव स्यूं।
तनु-छाया ज्यूं लार, रहतो ठाकर तेजजी।। ७. शासण रो हर काम, प्राणाधिक समझ्यो सुगुण।
गुरुवांरी हर याम, उत्कृष्टी मरजी रही।। ७. संसार से विरक्त बालक कालू के वैराग्य को पोषण देने हेतु मघवागणी सदा प्रत्यनशील रहे। आपने बार-बार वहां साधु-साध्वियों को भेजा। मुनि पृथ्वीराजजी को प्रदत्त निम्नलिखित पत्र इस तथ्य को प्रमाणित करता है
शिष्य पृथ्वीराजजी प्रमुख स्यूं सुखसाता बंचै। थारै चोमासो देशनोक तथा बीकानेर में जागां रो बेंत हुवै जठै कीज्यो। देशनोक में बोथरां रै बारली जागां है, इम छोटा जेठांजी कह्यो। सो उठै सन्त-सत्यां रेवै जिसी जायग्यां हुवै तो देशनोक बीकानेर कानी जाइज्यो। जो जागां रो बेंत न लखावै तो फतेपुर कीज्यो। तथा कालू नै कालू री मां छापर हुवै तो छापर कीज्यो। तथा और ही क्षेत्र में तिहां प्रसंग देखो, उपकार विशेष देखो, जठै कीज्यो। सं. १६४१ चैत सुदी १०.....
८. कालूगणी का विवेक बचपन में ही जाग्रत था। यह जाग्रत विवेक ही उन्हें जीवन की इतनी ऊंचाई तक ले गया। बाल्यकाल में उनके विवेक का निदर्शन निम्नांकित घटना में उपलब्ध है
दीक्षा की अनुमति पाने के बाद वैरागी कालू की शोभायात्रा निकाली गई। उस समय कई व्यक्तियों ने उनको अपने आभूषण पहनाने का आग्रह किया।
२५८ / कालूयशोविलास-१