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आस्थाहीन उदासी जी, मानव जो अविवेक, आलोचन-अभ्यासी जी, मानव जो अविवेक।
अविमासी यूं हांसी हांकै भाखै वच बेकार ।। १६. इतला बरसां जाणी जी, मोज करी मनमाणी जी,
ज्यूं-त्यूं बात बखाणी जी, तहत वचन धन वाणी जी।
अब ओड़ी-जोड़ी रा आया करणो हुसी विचार ।। १७. बात-बात में अड़सी जी, चरचा करणी पड़सी जी,
उभय पक्ष जब भिड़सी जी, पड़दा-पोल उघड़सी जी।
कुण साचो कुण काचो जाहिर जाचो जाचणहार।। १८. एक दुकान विलोकी जी, चोखी अथवा ओखी जी,
रचना विश्व अनोखी जी, पिण सब रही परोखी जी।
अबकै मौको मिलियो लोको! मत रोको मन-वेग।। १६. मोकै-मोकै जास्यां जी, चरचा-बात चलास्यां जी,
ऊहापोह उठास्यां जी, सुण वाणी सुख पास्यां जी।
घर आयां बहरास्यां बहुलो भाव-भक्ति स्यूं आ'र।। २०. म्है तो रहस्यां कानी जी, जोस्यां दो बानी जी,
लेस्यां पक्ष सयानी जी, नहीं उठास्यां हानी जी। रही तटस्थ समस्त विलोकै, बो जग में हुशियार।।
मानव जो सुविवेक। २१. थळी देश रा वासी जी, शास्त्रां रा अभ्यासी जी,
शासण रा विश्वासी जी, दृढ़ समकित चितवासी जी।
सुण आगमण प्रवासी-पख रो स्पष्ट करै उद्घोष ।। २२. पायो पन्थ अमोलां जी, फिर क्यूं इत-उत डोलां जी,
अपणी कीमत तोलां जी, व्यर्थ न ज्यान झकोलां जी।
धर्मसंघ ओळा-दोळां है अनहद अंतस्तोष।। २३. कहीं न आस्यां जास्यां जी, घर में गौरव पास्यां जी,
कल्पतरू फल खास्यां जी, नहिं बंबूल उगास्यां जी।
कामधेन रो धीणो छोड़ी क्यूं बकरी रो वास ? २४. जग में भेख भखंदर जी, मिलै न ऊपर अंदरजी,
बिच्छू काट्यो बंदर जी, पकड्यो सांप छबुंदर जी। सुन्दर स्यूं सुंदर मत अपणो तिल भर शंक न कंख।।
२०० / कालूयशोविलास-१