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६. अब कुण-सी नव की तेरह हुसी जी,
नहिं कहिं सजग धणी घर धाड़। बात विमासो हांसो नहिं करै जी,
दुर्जन दुर्मन वदन बिगाड़।। १०. अणजाणी आ आफत घालणी जी,
हो जी जठै सामाजिक संघर्ष। बिच में पड़णो लड़णो है मुधा जी,
करणो धरम-नीति-अपकर्ष ।। ११. उत्तर तरुण अरुणता में दियो जी,
नहिं भय सोच्यो सब एकंत। निश्चय लाभ आब बढ़सी सही जी,
थे सब राखो धीरज तंत।। १२. चाल्या मारग पुर-सरदार रै जी,
तन मन बहता मोद विशाल। संप्रदाय-संघर्षण री चली जी,
अब स्यूं एक अनोखी चाल ।। १३. पावस पूरो गिरिगढ़ रो करी जी,
श्री गुरु सहज शहर सरदारपधराया, मनभाया संघ नै जी, प्रतिपक्षी पिण लार हि लार ।।
सोरठा
१४. थळी देश रा लोक, विविध विचारां में बह्या।
तिण गतिविधि रो थोक, समझो चित्रण सामनै।।
मानव जो अविवेक।
१५. थळी देश रा वासी जी, मानव जो अविवेक,
कलह कुतुक अभिलाषी जी, मानव जो अविवेक।
१. स्थानकवासी आचायश्री जवाहिरलालजी २. लय : पिउ पदमण नै पूछे जी
उ.३, ढा.५ / १६६