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४७. रतनगढ़ में आवियो कांइ, प्रोफेसर गुरु पास।
गिल्की साहब गुणग्रही काइ, मेम श्वसुर सह खास।। ४८. प्रश्न प्रसन्नमना करै काइ, पंथ प्रणाली प्रेम।
जिनदर्शन री सूक्ष्मता काइ, सुणतां हियड़ो हेम।। ४६. विभु-विभुता प्रतिदिन बढ़े कांइ, दिन ज्यूं आतप-काल।
तीजे उल्लासे अखी काइ, समुचित दूजी ढाळ।।
ढाळः ३
दोहा १. करण शहर-सरदार पर, मर्यादोत्सव महर।
सोची पण आकस्मिकी, उठी अवर ही लहर।। २. माजी तन राजी नहीं, देणां पड़सी दर्श।
शीघ्र विहार कियो सुगुरु, बीदासर जन हर्ष ।। ३. बणी अरोगां वेग स्यूं, छोगां गुरु-सान्निध्य । ___ बलि विनवै श्रीचंदजी, विनय-भक्ति वैविध्य ।। ४. शीत-शाल असराल अति, है मुनि-वृन्द विशाल।
कष्ट-काल गणपाल! पिण, निरखो विरुद निहाल ।। ५. राय उदाई भाव लख, करी कृपा श्री वीर। ___ त्यूं कीजे सकरुण-हृदय! दीजे वचन सधीर।। ६. स्वीकृत श्रावक-वीनती, सुकृति-संघ-सरदार। ___माघ मास सुखवास हित, आया पुर-सरदार।। ७. सह्यो परीषह शीत रो, श्रमण-सती अनपार।
सुणो प्रसंगज शीत ऋतु रो वर्णन-विस्तार ।।
८. थर-थर कर कांपै सारो तन, दिन भर नहिं आळसड़ो जावै,
सिरखां सोड़ां में भी सी-सी करतां, नींदड़ली उड़ ज्यावै। जदि हाथ रहै सिरखां बाहर, मिनटां में बणज्या ठाकर-सो। 'हा! हा! बो के करतो होसी", मुख निकल पड़े रव साकर-सो।।
१. देखें प. १ सं. ८२ २. लय : मर्यादा म्हारै शासण री ३. देखे प. १ सं. ८३
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उ.३, ढा.२, ३ / १८७