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'मैं देखू दृग डारी मूरत मनहारी। ४५. मुद्रित भागवत मंगाई, श्रीधरी वृत्ति सह आई।
निज शिष्य पास पढ़वाई, सकल सुणतां री ३।। ४६. तो मिल्यो अर्थ बो सागी, फरमायो ज्यूं बड़भागी।
सुण चतुरां मति चकरागी, विजय-ध्वनि भारी ३।। ४७. अब पंडितजी बिन बोलै, झट अपणो पंथ टटोले।
उठ हालै होले-होळे, सकल सहकारी ३।।
दिदारू डालिम-पटधर दीपै।
४८. बीदासर पथ पधराया, गिरिगढ़ जन गौरव गाया हो।
उलसित दूजे उल्लासे, बारहवीं ढाळ प्रकाशे हो।।
ढाळः १३.
दोहा १. गंगाशहर-निवासिया, वासी बीकानेर।
जगबंधव त्रिभुवन-विभव, वन्दै देव दिलेर।। २. बीकायत व्यायतमुखी, खड़ी निहारै बाट।
क्यूंकर गुरुवर! वीसऱ्या, बीदायत रै ठाट।। ३. बीदायत बीकायते, ओ अंतर क्यूं पूज! ___ अन्तर्यामी! जो हुवै, कही बतावो गूझ ।। ४. अवसर रो सविनय विनय, अनुनय देख अनल्प।
दियो ध्यान सम्मान-युत, कियो जाण संकल्प।। ५. तेरापथ बीदायते, त्यूं बीकायत हेत।
उद्यम लम्ब बिलम्ब बिन, सुणिए सभ्य! सचेत।।
१. लय : सीपय्या तेरी सांवरी सूरत पर वारी २. देखें प. १ सं. ६५ ३. लय : प्रीतमजी! हिव तुम वेग पधारो
उ.२, ढा.१२, १३ / १५६