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३३. जो ग्रंथ भागवत बांचो, तो ढळे सांतरो ढांचो।
दो-दो मिल हुवै न पांचो, कहण कवियां री ३।। ३४. तन में जो चेतन बुद्धी, वनितादिक में निज बुद्धी। ___मृण्मय में पूज्य-प्रबुद्धी, तीरथ धी वारी' ३।। ३५. पर नहिं अभिज्ञ जनता में, बो है गो-खर अभिधाने।
है दृष्टि विपर्ययता में, अधम अविचारी ३।। ३६. सुण गीर्वाणी गुरु वाणी, वैष्णव जन चिंता ठाणी।
आ बात कठै स्यूं आणी, भागवत वारी ३।। ३७. कर परामर्श परिसर में, सहु विज्ञ गजानन' घर में।
आ घटना धीमै स्वर में, सुणाई सारी ३।। ३८. बोलै पंडित हां भाई! है श्लोक भागवत मांही।
पण अर्थ हुवै यूं नाही, कहूं निरधारी ३।। ३६. सब मिलजुल गुरु-पद आवै, गुरु अर्थ यथार्थ बतावै। पंडितजी शीष हिलावै, नहीं स्वीकारी ३।।
सोरठा ४०. पूछै विभु वर रीत, अर्थ करो पंडितप्रवर!
प्रबुध करै विपरीत, मुख ढांकी मूलार्थ रो।। ४१. कुणपादिक में जाण, आत्मादिक मति नहिं बहै।
बो गो-खर पहिचाण, तब गुरुवर प्रतिवच करै।। ४२. आदरियो संन्यास, थोरै मत पिण बहु मनुज।
तज संसार-विलास, ते पिण गो-खर ठहरसी।। ४३. शंकर-रचित सुवास, जो है 'चर्पट मंजरी'।
तिण रो पिण अभ्यास, कियो क नहिं धीमन! कभी।। ४४. पंडितजी पभणंत, जो हि हुवो इण श्लोक रो
अर्थ भागवत ग्रंथ, मिलै नहीं जो तुम कहो।।
१. देखें प. १ सं. ६३ २. पंडित गजानंदजी ३. देखें प. १ सं. ६४
१५८ / कालूयशोविलास-१