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लावणी छंद
६. नौका में बैठ्यो जैन संत सन्मति है, नौका-विहार री जैनागम अनुमति है । नर-नारी बालक गो महिष्यां हैं अन्दर, तटिनी-प्रवाह है जाणक भय समन्दर ।। ७. इक छेद भेद आवण लाग्यो है पाणी, केवल मुनि देखे और नहीं को जाणी । अब कुण-सो है कर्तव्य सन्त से सोचो, नाविक नै हो है क नहीं ? आलोचो ।। ८. ओ पढ़ो पाठ आगम रो आगे कीधो', गो-बाड़े रो उत्तर मिल ज्यासी सीधो । न्यायोचित उत्तर दियो सुगुरु अविवादी, देखी अणदेखी करै वितंडावादी ।। ६. निज प्रज्ञा नहिं निरपेक्ष, न समता मन में, नहिं जिज्ञासा री बात, न विनय वचन में । आगम-उद्धरण अगुणकर बिना समर्पण, दो लोचन बिना निरर्थक है सौ दर्पण' ।। १०. बाढ़ स्वर कर आह्वान सुगुरु तब बोलै, पार्श्व-स्थित जनता रो मानस टंटोलै । बोलो भाई ! जो प्रश्न सामनै आयो, उणरो प्रत्युत्तर समुचित रूपे पायो ? ११. सब शीष हिला स्वीकार करै गुरु- वाणी, तुम शांतवृत्ति री बात न जाय बखाणी । है सम्मुख मियां-मौलवी बैठा देखी, बतलावे सद्गुरु तुरत प्रपंच उवेखी ।।
१. आयारचूला ३।१।२२
२. यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किम् ? लोचनाभ्यां विहीनस्य, दर्पणः किं करिष्यति ?
उ.२, ढा.६ / १३१