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ब्रह्मदेव का समय ईस्वी मन् की 12वीं शती है। इनकी रचनायें हैं - वृहद्र्व्यसंग्रह की टीका, परमात्मप्रकाश की टीका, तत्त्वदीपक, ज्ञानदीपक, प्रतिष्ठातिलक, विवाहपटल, एवं कथाकोष।
ब्रह्मदेव की टीका-शैली पर भाष्यात्मक होने पर भी सरल है। व्याख्यायें नये रूप में प्रस्तुत की गयी है। अन्य ग्रन्थों से जो उद्धरण प्रस्तुत किये गये हैं, उनका विषय के साथ मेल बैठता है। टीकाकार के व्यक्तित्व के साथ मूल-लेखक का । व्यक्तित्व भी ब्रह्मदेव में समाविष्ट है। आचार्य रविचन्द्र
आचार्य रविचन्द्र अपने को 'मुनीन्द्र' कहते हैं। उनका निवास स्थान कर्नाटक-प्रान्त के अन्तर्गत 'पनसोज' नाम का स्थान है। अभिलेखों से इनका समय ईस्वी सन् की दशम शताब्दी सिद्ध होता है।52
___ इस परिचय से इतना तो स्पष्ट है कि आचार्य दक्षिण-भारत के निवासी थे और इन्होंने जैन-आगम का पाण्डित्य प्राप्त किया था। 'आराधनासार' में रविचन्द्र ने पूर्वाचार्यों के अनेक उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। अतएव इनका समय ई. सन् की 12वीं शताब्दी का अन्तिम पाद या 13वीं शती का प्रथम पाद संभव है।
रविचन्द्र का 'आराधनासारसमुच्चय' संस्कृतपद्यों में लिखा गया उपलब्ध है। इस ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप - इन चारों आराधनाओं का वर्णन किया गया है। रविचन्द्र ने यह समस्त ग्रन्थ आर्याछन्द में लिखा है। आचार्य अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती
मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ, कोण्डकुन्दान्वय की 'इंगलेश्वरी' शाखा के श्रीसमुदाय में माघनन्दि भट्टारक हुये हैं। इनके नेमिचन्द्र भट्टारक और अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती – ये दो शिष्य हुये हैं। अभयचन्द्र बालचन्द्र पण्डित के श्रुतगुरु थे।
अभयचन्द्र के समाधिमरण से सम्बन्धित अभिलेख में कहा गया है कि वह छन्छ, न्याय, निघण्टु, शब्द, समय, अलंकार, भूचक्र, प्रमाणशास्त्र आदि के विशिष्ट विद्वान् थे। श्रुतमुनि का समय ईस्वी सन् की 13वीं शताब्दी निश्चित है। अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने 'कर्मप्रकृति' नामक ग्रन्थ की रचना की है। इनको गोम्मटसार जीवकाण्ड की 'मन्दप्रबोधिका टीका' का रचयिता भी माना है।
इस ग्रन्थ में समस्त 146 उत्तरप्रकृतियों का स्वरूप-निर्धारण और भेद बतलाये गये हैं।
___ इस प्रकार संक्षेपतः उल्लिखित जैनाचार्य-परम्परा के परिचयात्मक-विवरण से
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ