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तर्कयुक्ति और न्यायपूर्वक अकाट्य-रीति से सिद्धि करने वाले आचार्य अकलंकदेव जैन-न्याय के क्षेत्र में अत्यधिक प्रतिष्ठित आचार्य हैं।
अकलंक मान्यखेट के राजा, शुभतुंग के मन्त्री 'पुरुषोत्तम' के पुत्र थे। 'राजावलिकथे' में इन्हें कांची के 'जिनदास' नामक ब्राह्मण का पुत्र कहा गया हैं पर 'तत्त्वार्थवार्तिक' के प्रथम अध्याय के अन्त में उपलब्ध प्रशस्ति से ये 'लघुहव्वनृपति' के पुत्र प्रतीत होते हैं।
___कांचीपुरी में बौद्धधर्म के पालक पल्लवराज की छत्रछाया में अकलंक ने बौद्धन्यास का अध्ययन किया। अकलंक शास्त्रार्थी विद्वान् थे। इन्होंने दीक्षा लेकर सुधापुर के देशीयगण का आचार्य-पद सुशोभित किया। अकलंक ने हिमशीतल राजा की सभा में शास्त्रार्थ कर तारादेवी को परास्त किया। ब्रह्म नेमिदत्तकृत 'आराधनाकथाकोष' और 'मल्लिषेण-प्रशस्ति' से भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है।
विद्वानों के अनुमानों से अकलंक का समय सातवीं शती का उत्तरार्द्ध सिद्ध होता है। अकलंकदेव की रचनायें दो वर्गों में विभाजित हैं - 1. स्वतन्त्र-ग्रंथ, एवं 2. टीका-ग्रन्थ। स्वतन्त्र-ग्रंथ में स्वोपज्ञवृत्तिसहित लघीयत्रय, न्यायविनिश्चय-सवृत्ति, सिद्धिविनिश्चय-सवृत्ति एवं प्रमाणसंग्रह-सवृत्ति रचनायें आती हैं, जबकि टीका-ग्रन्थों में तत्त्वार्थवार्तिक-सभाष्य एवं अष्टशती अपरनाम देवागमविवृत्ति हैं।
- अकलंकदेव का उनकी रचनाओं पर से षड्दर्शनों का गम्भीर और सूक्ष्म-चिन्तन अवगत होता है एवं शैली की दृष्टि से अकलंक निश्चय ही उद्योतकर और धर्मकीर्ति के समकक्ष हैं। आचार्य एलाचार्य
एलाचार्य का स्मरण आचार्य 'वीरसेन' ने विद्यागुरु के रूप में किया है। वीरसेन ने 'जयधवलाटीका' में एलाचार्य का स्मरण किया है, तथा उनकी कृपा से प्राप्त आगम-सिद्धान्त को लिखे जाने का निर्देश किया है।
इनके समय का निर्धारकरूप से बड़ा प्रमाण यही है कि वीरसेन ने उन्हें अपना गुरु बताया है, और उन्हीं के आदेश से सिद्धान्त-ग्रन्थों का प्रणयन किया है। अतः एलाचार्य वीरसेन के समकालीन अथवा कुछ पूर्ववर्ती हैं। वीरसेन ने धवलाटीका शक-संवत् 738 (ईस्वी सन् 819) में समाप्त की थी। अतएव एलाचार्य आठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और नवमी शती के पूर्वार्द्ध के विद्वानाचार्य हैं।
एलाचार्य के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, और न कोई ऐसी कृति ही उपलब्ध है, जिसमें एलाचार्य की कृतियों के उद्धरण ही मिलते हों। फिर भी आ. वीरसेन के गुरु होने के कारण ये सिद्धान्तशास्र के मर्मज्ञ विद्वान् थे, इसमें सन्देह नहीं है।
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ