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अभिलेख संख्या 108 में गृद्धपिच्छ उमास्वामी का शिष्य बलाकपिच्छाचार्य को बतलाया है। 'तत्त्वार्थसूत्र' के निर्माण में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का सर्वाधिक उपयोग किया गया है। गृद्धपिच्छ ने कुन्दकुन्द का शाब्दिक और वस्तुगत अनुसरण किया है, अतः आश्चर्य नहीं कि गृद्धपिच्छ के गुरु कुन्दकुन्द रहे हों।
इनका समय नन्दिसंघ की पट्टावलि के अनुसार वीर-निर्वाण सम्वत् 571 है, जोकि विक्रम संवत् 101 आता है।
नन्दिसंघ की पट्टावलि में बताया है कि उमास्वामी 40 वर्ष 8 महीने आचार्य-पद पर प्रतिष्ठित रहे। उनकी आयु 74 वर्ष की थी और विक्रम सम्वत् 142 में उनके पट्ट पर लोहाचार्य द्वितीय प्रतिष्ठित हुये।
आचार्य गृद्धपिच्छ की एकमात्र रचना 'तत्त्वार्थसूत्र' है। इस सूत्रग्रन्थ का प्राचीन नाम 'तत्त्वार्थ' रहा है। इस ग्रन्थ में जिनागम के मूल-तत्त्वों को बहुत ही संक्षेप में निबद्ध किया है। इसमें कुल दस अध्याय और 357 सूत्र हैं। संस्कृत-भाषा में सूत्रशैली में लिखित यह पहला सूत्रग्रन्थ है। इसमें करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग का सार समाहित हैं। जैन-वाङ्मय में संस्कृत-भाषा के सर्वप्रथम सूत्रकार गृद्धपिच्छ हैं और सबसे पहला संस्कृत-सूत्रग्रन्थ 'तत्त्वार्थसूत्र' है।
सूत्रशैली की जो विशेषतायें पहले कही जा चुकी हैं, वे सभी विशेषतायें इस सूत्रग्रन्थ में विद्यमान हैं। यह रचना इतनी सुसम्बद्ध और प्रामाणिक है कि भगवान् महावीर की द्वादशांगवाणी के समान इसे महत्त्व प्राप्त है। आचार्य वट्टकेर
'मूलाचार' नामक ग्रंथ के रचयिता आचार्य वट्टकेर बताये जाते हैं। किन्तु बहुत से विद्वान् मूलाचार को आचार्य कुन्दकुन्द की ही रचना मानते हैं, तथा 'वट्टकेर' शब्द को उनकी उपाधि मानते हैं; क्योंकि इस शब्द का अर्थ 'हितकारी-वाणी या जिनवाणी का प्रवर्तक' माना गया है, और आचार्य कुन्दकुन्द के व्यक्तित्व एवं योगदान को देखते हुये यह उपाधि उनके लिये सटीक जान पड़ती है। फिर भी कई आचार्यों ने वट्टकेर का अलग से उल्लेख किया है, तथा कुन्दकुन्द के मूल-साहित्य की पाण्डुलिपियों एवं टीकाग्रन्थों में भी कुन्दकुन्द आचार्य की उपाधि के रूप में इसका प्रयोग नहीं मिलता है। इसीलिये कई विद्वान् वट्टकर को स्वतंत्र आचार्य मानते हैं, तथा उनकी एकमात्र कृति 'मूलाचार' मानते हैं।
वट्टकेर के बारे में ऐसी दुविधापूर्ण स्थिति निर्मित होने का एक प्रमुख कारण यह भी है कि आचार्य वट्टकेर के जीवन, काल-निर्णय, अन्य ग्रन्थों तथा किसी भी प्रकार के ऐतिहासिक तथ्य आदि के उल्लेख का अभाव है। यहाँ तक कि मूलाचार के टीका-साहित्य में भी इनके जीवन एवं योगदान के बारे में सभी टीकाकार मौन
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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