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प्राप्त किया और अपनी सूक्ष्म प्रतिभा का चूर्णिसूत्रों में उपयोग किया।
___ यतिवृषभ का समय शक-संवत् के निर्देश के आधार पर 'तिलोयपण्णत्ती' के आलोक में भी प्रथम ईस्वी सन् के आसपास सिद्ध होता है। निर्विवादरूप से यतिवृषभ की दो ही कृतियाँ मानी जाती है। - 1. कसायपाहुड पर रचित 'चूर्णिसूत्र' और, 2. 'तिलोयपण्णत्ती'।
पं. हीरालाल जी शास्त्री के मतानुसार आचार्य यतिवृषभ की एक अन्य रचना 'कम्मपयडि'-चूर्णि भी है। यतिवृषभ के नाम से करणसूत्रों का निर्देश भी प्राप्त होता है, पर आज इन करणसूत्रों का संकलित रूप प्राप्त नहीं है। आचार्य वप्पदेवाचार्य
श्रुतधराचार्यों में शुभनन्दि, रविनन्दि के साथ 'वप्पदेवाचार्य' का नाम भी आता है। वप्पदेवाचार्य ने समस्त सिद्धान्तग्रन्थों का अध्ययन किया। यह अध्ययन 'भीमरथि'
और 'कृष्णामेख' नदियों के मध्य में स्थित 'उत्कलिकाग्राम' के समीप 'मगणवल्लि' ग्राम में हुआ था। इस अध्ययन के पश्चात् उन्होंने 'महाबन्ध' को छोड़ शेष पाँच खण्डों पर 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' नाम की टीका लिखी है और छठे खण्ड की संक्षिप्त विवृत्ति भी लिखी है। इन छहों खण्डों के पूर्ण हो जाने के पश्चात् उन्होंने 'कषायप्राभृत' की टीका का परिमाण 60,000 और 'महाबन्ध' की टीका का 5 अधिक 8,000 बताया जाता है। ये सभी रचनायें प्राकृत-भाषा में की गयी थीं, जोकि आज अनुपलब्ध हैं।
__ वप्पदेव का समय वीरसेन स्वामी से पहिले है। संक्षेप में वप्पदेव का समय 5वीं से 6वीं शती है। आचार्य गृद्धपिच्छाचार्य
'तत्त्वार्थसूत्र' के रचयिता आचार्य गृद्धपिच्छ हैं। इनका अपरनाम उमास्वामी प्राप्त होता है। आचार्य वीरसेन ने जीवस्थान के काल अनुयोगद्वार में 'तत्त्वार्थसूत्र'
और उसके कर्ता गृद्धपिच्छाचार्य के नामोल्लेख के साथ उनके 'तत्त्वार्थसूत्र' का एक सूत्र उद्धृत किया है
___ 'तह गिद्धपिच्छाइरियप्पयासिद-तच्चत्थसुत्ते वि "वर्तनापरिणामक्रिया: परत्वापरत्वे च कालस्य" इदि दव्वकालो परूविदो'121
'तत्त्वार्थसूत्र' के टीकाकार ने भी निम्न पद्य में तत्त्वार्थ के रचयिता का नाम गृद्धपिच्छाचार्य दिया है
'तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम्।
वन्दे गणीन्द्रसंजातमुमास्वामिमुनीश्वरम्॥ गृद्धपिच्छ के गुरु का नाम कुन्दकुन्दाचार्य होना चाहिये। श्रवणवेलगोला के
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ