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महावीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात् तीर्थंकर-परम्परा समाप्त हो गई थी। उनके निर्वाण के पश्चात् जैनधर्म के मुखिया व संरक्षकों के रूप में गणधरों की मुख्य भूमिका रही थी। गणधरों के पश्चात् जैनाचार्यों की एक निरन्तर चली आ रही आचार्य परम्परा है। भगवान् महावीर के पश्चात् कितने ही प्रसिद्ध आचार्य, मुनि एवं भट्टारक हुये हैं जिन्होंने अपने सदाचार और सद्विचारों से न केवल जैन-समाज को अनुप्राणित किया, बल्कि अपनी अमर लेखनी द्वारा भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाया। आज तक यह परम्परा अपने समृद्धरूप में चली आ रही है। पार्श्वनाथ के पश्चात् महावीर स्वामी ने पूरे संघ को चार श्रेणियों में विभाजित किया था। ये चार श्रेणियां क्रमशः मुनि, आर्यिका, श्रावक एवं श्राविका थीं। संघ में मुनि, आर्यिका, साधु-वर्ग सम्मिलित थे; जबकि श्रावक एवं श्राविका गृहस्थ थे। निर्ग्रन्थ रहकर तपसाधना करनेवालों को 'आचार्य' व 'मुनि' पद दिया गया। 'आर्यिका' यद्यपि वस्त्रधारी होती हैं, जो उनकी शरीर की स्थिति को देखकर छूट दी गई है। इसी कारण से उन्हें उपचार से 'महाव्रती' कहा गया है।
महावीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात् उनकी संघ-व्यवस्था यथावत् चलती रही। उनके निर्वाण के पश्चात् प्रथम गणधर गौतम स्वामी ने जैन-संघ को नेतृत्व प्रदान किया। इन्होंने 12 वर्ष तक संघ के मुखिया के रूप में अध्यात्म-साधना करते हुये निर्वाण-पद प्राप्त किया। एक पट्टावली के अनुसार महावीर स्वामी के पश्चात् निम्न प्रकार केवली, श्रुतकेवली एवं अंगधारी आचार्य होते रहे।
केवली काल तीन केवलज्ञानधारी 1. गौतम स्वामी 12 वर्ष
2. सुधर्मा स्वामी
12 वर्ष 3. जम्बू स्वामी
38 वर्ष
62 वर्ष —इन तीनों केवली-भगवन्तों ने 62 वर्षों तक उत्कृष्ट साधना के द्वारा जगत् को महावीर के सदृश केवलज्ञान प्राप्तकर उपदेशामृत का पान कराया और फिर निर्वाण प्राप्त किया। पाँच श्रुतकेवली' 1. विष्णुनन्दि
14 वर्ष 2. नन्दिप्रिय
16 वर्ष 3. अपराजित
22 वर्ष 4. गोवर्धन
. 19 वर्ष 5. भद्रबाहु स्वामी 29 वर्ष
100 वर्ष —ये पाँच आचार्य केवलज्ञान के स्थान पर पूर्ण-श्रुतज्ञान ही प्राप्त कर सके। इसलिये
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ