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खण्ड-द्वितीय
महावीरोत्तर-युग और जैनाचार्य-परम्परा
तीर्थंकरों, केवलियों एवं श्रुतकेवलियों की परम्परा के बाद श्रुत के अंशधारक आचार्यों ने तीर्थंकरों के द्वारा उपदिष्ट तत्त्वज्ञान को सुरक्षित एवं संरक्षित किया। इस परम्परा का श्रुतलेखन के रूप में संरक्षण परवर्ती आचार्य-परम्परा ने अत्यन्त श्रम एवं निष्ठापूर्वक किया। इससे स्पष्ट है कि भगवान् महावीर के द्वारा उपदिष्ट श्रुत की परम्परा ही इनके द्वारा आगे प्रवर्तित हुई। इस विषय में 'तिलोयपण्णत्ती' का यह कथन मननीय है
महावीर-भासियत्थो तस्सिं खेत्तम्मि तत्थ काले य। खायोवसयम-विवड्ढिद-चउरमल-मईहि पुण्णेण॥ लोयालोयाण तहा जीवाजीवाण विविह-विसयेसु। संदेह-णासणत्थं उवगद-सिरिवीर-चलणमलेण॥ विमले गोदमगोत्ते आदेगणं इंदभूदि-णामेण। चउवेद-पारगेणं सिस्सेण विसुद्धसीलेण॥ भावसुद-पज्जयेहिं परिणद-मदिणा अ बारसंगाणं। चाँद्दसपुव्वाण तहा ऍक्कमुहुत्तेण विचरणा विहिदो॥ इय मूलतंतकत्तो सिरिवीरो इंदभूदि-विप्प-वरो। उवतंते कत्तारो अणुतंते सेस-आइरिया। णिण्णट्ठ-रागदोसा महेसिणो दिव्वसुत्तकत्तारो।
किं कारणं पभणिदा कहिदुं सुत्तस्स पामण्णं।' अर्थात् तीर्थंकर महावीर अर्थकर्ता हैं। इनके द्वारा उपदिष्ट पदार्थ-स्वरूप उसी क्षेत्र और उसी काल में ज्ञानावरण के विशेष क्षयोपशम से वृद्धि को प्राप्त निर्मल चार बुद्धियों से परिपूर्ण, लोक-अलोक और जीवाजीवादि विविध विषयों में उत्पन्न हुये सन्देह को नष्ट करने वाले, शरणागत, निर्मल ‘गौतम' गोत्र में उत्पन्न, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग, तथा इसीप्रकार चार वेदों अथवा ऋक्, यजु, साम और अथर्व - इन चारों वेदों में पारंगत, विशुद्ध शील के धारक, भावश्रुतरूप पर्याय से बुद्धि की परिपक्वता को प्राप्त 'इन्द्रभूति' नामक शिष्य अर्थात् 'गौतम गणधर' ने एक मुहूर्त में बारह अंग और चौदह पूर्वो की रचना की। इसप्रकार तीर्थंकर महावीर 'मूलतंत्रकर्ता', इन्द्रभूति गणधर 'उपतंत्रकर्ता' एवं शेष आचार्य
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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