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माना जाता है। जैन-ग्रन्थों में इसका नाम 'भद्दलपुर' पाया जाता है। बुन्देलखण्ड में भी अनेक जैन-तीर्थ हैं, जिनमें सोनागिर, देवगढ़, नयनागिरि और द्रोणगिरि का नाम उल्लेखनीय है। खजुराहो के प्रसिद्ध जैन-मन्दिर आज भी दर्शनार्थियों को आकर्षित करते हैं। सत्रहवीं सदी में वहाँ जैनधर्म का ह्रास होना आरम्भ हुआ। जहाँ किसी समय लाखों जैनी थे, वहाँ अब जैनधर्म का पता जैन-मन्दिरों के खण्डहरों और टूटी-फूटी जैन-मूर्तियों से चलता है। उत्तर प्रदेश में जैनधर्म का केन्द्र होने की दृष्टि से 'मथुरा' का नाम उल्लेखनीय है। मथुरा के कंकाली टीले से जो लेख प्राप्त हुये हैं, वे ईसापूर्व की दूसरी सदी से लेकर पाँचवीं ईस्वी शताब्दी तक के हैं, जिससे इस स्थान की जैनधर्म के केन्द्र के रूप में प्राचीनता का आभास होता है। इन लेखों से पता चलता है कि सुदीर्घकाल तक मथुरा नगरी जैनधर्म का प्रधान-केन्द्र थी। जैन-तीर्थंकरों का सम्बन्ध अयोध्या और बनारस से भी रहा है। वर्तमान में भी जैनधर्म के अनुयायी उत्तर प्रदेश में अच्छी संख्या में, विशेषकर पश्चिमी-उत्तरप्रदेश के अधिकांश जिलों में जैन-मतावलम्बियों की बहुतायत है, जबकि पूर्वी-उत्तरप्रदेश में 80 प्रतिशत जैन राजस्थान-मूल के हैं, जो व्यापार-वाणिज्य के लिये वहाँ बसे हुये हैं।
हरियाणा, पंजाब एवं कश्मीर – इन तीनों ही प्रदेशों में कभी जैन-समाज अच्छी संख्या में रहता था। सन् 1992-93 में 'लरकाना' स्थित 'मोअन-जो-दड़ो' के टीले की खुदाई में प्राप्त मिट्टी की मुद्राओं पर एक तरफ बड़े आकार में भगवान् ऋषभदेव की कायोत्सर्ग-मुद्रा में मूर्ति बनी हुई है। दूसरी तरफ बैल का चिह्न बना हुआ है। 'हड़प्पा' की खुदाई में कुछ खण्डित मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं। इन दोनों पुरातात्त्विक महत्त्व के स्थलों से प्राप्त अवशेषों से इस बात पर प्रकाश पड़ता है कि हड़प्पा-कालीन जैन-तीर्थंकरों की मूर्तियाँ जैनधर्म में वर्णित कायोत्सर्ग-मुद्रा की ही प्रतीत होती हैं। पंजाब-प्रदेश में पहले हरियाणा-प्रदेश भी शामिल था। गांधार, जम्मू, पुंज, सियालकोट, जालंधर, कांगड़ा, सहारनपुर से अम्बाला, पानीपात, सोनीपत, करनाल, हिसार एवं कश्मीर का भाग - ये सभी पंजाब-प्रदेश में गिने जाते थे। पंजाब में जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपने द्वितीय पुत्र बाहुबलि को 'गंधार' का राज्य दिया था, जिसकी राजधानी तक्षशिला थी। पंजाब-प्रदेश में 11वीं शताब्दी तक जैनधर्म के अनुयायियों की संख्या पर्याप्त थी। ऐसा उल्लेख मिलता है कि सिकन्दर को स्वदेश लौटते समय अनेक नग्न साधु मिले थे। किन्तु 11वीं सदी से 15वीं सदी के दौरान महमूद गजनवी से लेकर सिकन्दर लोदी तक अनेक मुसलमान-आक्रमणकारियों ने इस क्षेत्र की जैन-संस्कृति को भारी क्षति पहुँचायी। सन् 1947 में पाकिस्तान बनने से पूर्व रावलपिण्डी-छावनी, सियालकोट-छावनी, लाहौर-छावनी, लाहौर-नगर, फिरोजपुर-छावनी, अम्बाला-छावनी, मुल्तान, डेरा गाजी-खान आदि नगरों में जैनों के अच्छी संख्या में घर थे तथा मन्दिर भी थे। इन जैनों में मुख्यरूप से अग्रवाल, खण्डेलवाल व ओसवाल जातियों की प्रमुखता थी।
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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