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समाज के दिगम्बर जैनधर्म की प्रगति व रक्षा के लिये जिस दूरदर्शिता से दिन-रात लगन के साथ पूज्य ब्र. शीतलप्रसाद जी ने जो कार्य किये, उसे समाज हजारों वर्ष याद रखेगा। उन्होंने अनेकों प्रकार की कठिनाइयों को भी सहन किया, हमारे पास शब्द नहीं हैं, जो उनके प्रति श्रद्धा के सुमन अर्पित किया जा सकें।
भारत के स्वतंत्रता के बाद भारत में भिन्न-भिन्न धर्मों के माननेवालों की जानकारी हेतु शासकीय जनगणना में जो कॉलम दर्शायी हैं, उनमें जैनधर्म को पृथक् स्थान दिया गया है, जिसमें केवल 'जैन' लिखवाना अनिवार्य है। जैनधर्म को मानने वाले अनेकों उपजातियाँ, गोत्र अपने नाम के साथ उल्लेख करते हैं, इसकारण व्यापकरूप से प्रचार-प्रसार किया गया कि कॉलम में केवल 'जैन' ही लिखवायें। जैन एक करोड़ से अधिक हैं, परन्तु शासकीय जनगणना में केवल लगभग 40 लाख की संख्या आती है। इसका कारण है कि जैनियों को हिन्दू के कॉलम में अंकित कर दिया जाता है। हमारे कार्यकर्त्ता उनके साथ लगकर जैन लिखवाने के लिये सक्रिय होकर कार्य नहीं करते हैं। जैनियों की बड़ी संख्या आये, इसका व्यापक प्रचार-प्रसार होना चाहिये तथा आवश्यक कार्य लगन से हो, यह अतिआवश्यक है। शिक्षा - प्राप्ति के लिये जैन समाज द्वारा अनेकों कॉलिज, हायर सेकेन्डरी स्कूल, मिडिलस्कूल, गर्ल्स हाईस्कूल, पाठशालायें आदि लगभग 400 से अधिक इस देश के प्रत्येक क्षेत्रों में चल रहे हैं, जिनमें बड़ी संख्या में छात्र-छात्रायें शिक्षा प्राप्त करती हैं।
जैन-समाज की गतिविधियों की जानकारी हेतु एवं जैनधर्म के प्रचार- प्रसार के कार्य को प्रगति देने के लिये लगभग 200 जैन पत्र-पत्रिकायें आज प्रकाशित हो रही हैं, जिनके द्वारा व्यापक प्रचार-प्रसार होता है, इनमें कुछ समाचार-पत्र अखिल भारतीय संस्थाओं से जुड़े हुये हैं।
भारत के स्वतंत्रता के पश्चात् स्वदेशी वस्तुओं को उपयोग में लाने का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। विदेशी वस्त्रों का त्याग एवं स्वदेशी वस्त्रों को ग्रहण किया, पूजा-स्थलों में जो विदेशी वस्त्रों का उपयोग होता था, उसके स्थान पर स्वदेशी वस्त्रों को स्थान दिया गया।
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समस्त दिगम्बर जैन- समाज परिचित है कि दिगम्बर जैन मुनि संघ का अभाव मुस्लिम शासन में हुआ। उस समय भट्टारक- पद्धति प्रारम्भ हुई थी। भट्टारक - महाराजों ने अपने गद्दी स्थापित की, जिसके साथ जमींदारी आदि भी उन्हें प्राप्त हुई। उन्होंने बड़ी संख्या में प्राचीन ग्रंथों व बहुमूल्य मूर्तियों की सुरक्षा की। आज जिन स्थानों पर यह गद्दियाँ शोभायमान है, उनमें
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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