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चरिउ', रइधू कवि का 'श्रीपाल-सिद्धचक्र-चरिउ', आचार्य श्रुतकीर्ति का 'हरिवंशपुराण' एवं पं. श्रीधर का 'सुकुमालचरिउ' की ग्रंथ-प्रशस्तियों में 'पुरवाड' शब्द का ही प्रयोग किया गया है। लेकिन श्रावकों की 72 जातियों वाली एक पाण्डुलिपि में इष्टसखा पोरवाड, दुसखा पोरवाड, चोसखा पोरवाड, जागडा पोरवाड, पद्मावती परवार, सोरठिया पोरवाड नामों के साथ 'परवार' नाम को भी गिनाया है। ऐसा लगता है कि परवार-जाति, भेद एवं प्रभेदों में इतनी बँट गई थी, कि इनमें परस्पर में रोटी-व्यवहार एवं बेटी-व्यहार भी बन्द हो गया था। चौसखा-समाज वर्तमान में 'तारणपंथी समाज' के नाम से जाना जाता है। कविवर बख्तराम साह ने अपने 'बुद्धि-विलास' में परवार-जाति के सात खापों का उल्लेख किया है। ___'पौरपट्ट अन्वय' में जो 12 गोत्र सुप्रसिद्ध हैं, उनके नाम निम्नप्रकार हैं - गोइल्ल, वाछल्ल, इयाडिम्म, बाझल्ल, कासिल्ल, कोइल्ल, लोइच्छ, कोछल्ल, भारिल्ल, माडिल्ल, गोहिल्ल और फागुल्ल। प्रत्येक गोत्र के अन्तर्गत 12-12 मूल गिनाये गये हैं, जो सम्भवतः ग्रामों के नाम पर बने हुये हैं।
परवार-जाति में अनेक विद्वान् एवं भट्टारक हुये हैं। संवत् 1371 में कवि देल्ह ने 'चौबीसी गीत' लिखा था। कवि का जन्म परवार-जाति में हुआ था। 13वीं शताब्दी में पोरपट्टान्वयी महिचन्द साधु की प्रेरणा से महान् पं. आशाधर ने 'सागर धर्मामृत' ग्रंथ एवं उसकी टीका लिखी थी।
इस जाति के बारे में विस्तृत-लेखन की आवश्यकता है। देश में परवार-जाति मुख्यतः बुन्देलखण्ड क्षेत्र में मिलती है। जबलपुर, सागर, ललितपुर, कटनी, सिवनी आदि नगरों में बहुसंख्या में मिलते हैं। सारे देश में परवार-जाति की संख्या 5-6 लाख से अधिक होगी। 3. बघेरवाल ___'बघेरवाल-जाति' राजस्थान की एक प्रमुख दिगम्बर-जैन-जाति है। प्रदेश के कोटा, बूंदी एवं टोंक जिले बघेरवाल-समाज के प्रमुख केन्द्र हैं। राजस्थान के अतिरिक्त महाराष्ट्र में भी बघेरवाल-जाति अच्छी संख्या में मिलती है। बघेरवाल-जाति की उत्पत्ति विक्रम संवत् 101 में टोंक जिले के 'बघेरा' गाँव से मानी जाती है। कृष्णदत्त के विक्रम संवत् 1746 में रचित 'बघेरवालरास' में उक्त मत की पुष्टि की गई है
"आदि बघेरे अपनों निश्चल उत्पत्ति नाम।
बडकुल जस तिण वर्णाये, बघेरवाल वरियाम॥" 'बघेरा' राजस्थान में 'केकड़ी' से लगभग 16 कि.मी. दूरी पर स्थित है। वर्तमान में वहाँ बघेरवालों का एक भी परिवार नहीं रहता, लेकिन बघेरवाल बन्धु
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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