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खण्ड-चतुर्थ
समसामयिक सन्दर्भो में महावीर-परम्परा
चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर के अनुयायियों की परम्परा आजतक अनवरत-रूप से चली आ रही है। इसकी निरन्तरता में अनेकों महापुरुषों, धर्माचार्यों, मनीषियों एवं समाजसेवियों का अनन्य योगदान रहा है। इसके बहुआयामी-स्वरूप के निर्माण में जैनों की अवान्तर-जातियों ने भी महनीय भूमिका निभायी है। साथ ही विपरीत से विपरीतकाल में भी जैनों ने किसी न किसी की छत्रछाया में जैनत्व की रक्षा और महावीर की परम्परा का संरक्षण जिसप्रकार से किया है, वह अपने आप में एक अनुकरणीय आदर्श है। विगत पच्चीस सौ वर्षों का लेखाजोखा सन् 1974 ईस्वी में भगवान् महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाण-महोत्सव का विश्वव्यापी आयोजन कर जैनों ने भली-भाँति ज्ञापित किया था। बीसवीं और इक्कीसवीं शताब्दी में भगवान् महावीर की जैन-परम्परा किन-किन रूपों में चली है और इसने क्या नये क्षितिज आविष्कृत किये हैं - इन सब बातों के लिये हमें व्यापकरूप से विचार करना होगा। चूँकि मूलतः भगवान् महावीर की परम्परा निर्ग्रन्थत्व की थी और सम्पूर्ण भारतीय-वाङ्मय के आलोक में विद्वानों ने यह सिद्ध किया है कि इस 'निर्ग्रन्थ' शब्द का मूल-अर्थ पूर्णतः अपरिग्रही-दिगम्बर-श्रमण ही होते हैं। इसी कारण से यहाँ पर दिगम्बरत्व को ही भगवान् महावीर की मूल-परम्परा मानते हुये उसी का समसामयिक-संदर्भो में विशेष-विवरण दिया जा रहा है। दिगम्बर जैनों का सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन
जैनधर्म की भांति जैन-समाज भी अनेक उतार-चढ़ावों से गुजरा है; अनेक बार जैनेतरों को यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि जैन कोई जातिमात्र है। जबकि वास्तविकता यह है कि जैन मूलतः एक धर्म है। प्रारम्भ में विस्तारपूर्वक बताया गया है कि जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने जैनधर्म के अनुयायियों को तीन वर्गों में विभाजित किया था एवं तत्पश्चात् चक्रवर्ती भरत ने चार वर्णों की अवधारणा को स्वीकृति प्रदान कर दी थी। वैदिक वर्ण-व्यवस्था ने ही कालान्तर में जाति-प्रथा का रूप धारण कर लिया था। चूँकि जैनधर्म ने प्रारम्भ से ही वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार किया था, तो स्वाभाविक है कि जैनधर्म के अनुयायी अनेक जातियों में बँटे हुये हैं। जैन-धर्मानुयायियों के आचार-विचार में शुद्धता बनाये रखने के ध्येय से समाज का चार वर्गों में वर्गीकरण किया गया था। जैनधर्म के अतिरिक्त सिक्ख, मुस्लिम एवं ईसाइयों तक में जाति-प्रथा पाई जाती है।
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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