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थे। इनका समय 16वीं शताब्दी का अन्तिम भाग और 17वीं शताब्दी का मध्यभाग है। इन्होंने संस्कृत और हिन्दी भाषाओं में अपनी रचनायें लिखी हैं। संस्कृत-भाषा की रचनायें हैं – कर्मकाण्डटीका एवं पंचसंग्रहटीका; जबकि हिन्दी-भाषा की कृतियाँ हैं – धर्मपरीक्षारास, वसन्तविद्याविलास, जिह्वादन्तसंवाद, जिनवरस्वामीविनती, शीतलनाथगीत, एवं फुटकर पद्य। भट्टारक जिनचन्द्र
दिल्ली की भट्टारक-गद्दी के आचार्यों में जिनचन्द्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। विक्रम संवत् 1407 ज्येष्ठ कृष्ण पंचमी को इनका पट्टाभिषेक बड़ी धूमधाम के साथ हुआ था। 64 वर्ष तक ये भट्टारक-पद पर आसीन रहे। इनकी आयु 91 वर्ष, आठ माह, सत्ताईस दिन थी। ये बघेरवाल-जाति के थे। जिनचन्द्र ने राजस्थान, उत्तरप्रदेश, पंजाब एवं दिल्ली के विभिन्न प्रदेशों में पर्याप्त विहार किया और जनता को धर्मोपदेश दिया।
__ आचार्य जिनचन्द्र ने मौलिक-ग्रन्थलेखन के साथ प्राचीन-ग्रन्थों की पाण्डुलिपियाँ तैयार करायीं। इनकी 'सिद्धान्तसार, एवं 'जिनचतुर्विंशतिस्तोत्र' रचनायें उपलब्ध हैं। भट्टारक प्रभाचन्द्र
जिनचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्र के सम्बन्ध में पट्टावली में बतलाया है – "संवत् 1471 फाल्गुनवदी द्वितीया को भ. प्रभाचंद्र जी गृहस्थवर्ष 15 दीक्षावर्ष 35 पट्टवर्ष 9 मास, 4 दिवस, 25 अंतरदिवस, 8 सर्ववर्ष, 59 मास, 5 दिवस, 2 एकै बार गच्छ दोय हुआ चीतोड अर नागोर का सं. 1572 का अष्वाल।"14
प्रभाचन्द्र खण्डेलवाल-जाति के श्रावक थे। विक्रम संवत् 1571 की फाल्गुन कृष्ण द्वितीया को दिल्ली में धूमधाम से इनका पट्टाभिषेक हुआ। पट्टावली के अनुसार ये 15 वर्ष तक भट्टारक-पद पर रहे। प्रभाचन्द्र ने साहित्य, पुरातत्त्व, ग्रन्थाद्वार एवं जनसाधारण में धर्म के प्रति अभिरुचि उत्पन्न करने के कार्य सम्पन्न किये। भट्टारक जिनसेन द्वितीय
द्वितीय जिनसेन भट्टारक यशकीर्ति के शिष्य हैं। इनकी एक कृति 'नेमिनाथरास' उपलब्ध हुई है, जिसकी रचना विक्रम संवत् 1556 माघ शुक्ल पंचमी, गुरुवार, सिद्धयोग में जवाच्छ नगर में सम्पन्न हुई। यह रास प्रबन्धकाव्य है और जीवन की समस्त प्रमुख घटनायें इसमें चित्रित हैं। समस्त रचना में 93 पद्य हैं। इसकी प्रति जयपुर के दिगम्बर-जैन बड़ा मन्दिर तेरहपंथी शास्त्र-भण्डार में संग्रहीत है। प्रति का लेखनकाल विकम-संवत् 1516 पौष शुक्ल पूर्णिमा है। रास की भाषा राजस्थानी है, जिसपर गुजराती का प्रभाव है। जिनसेन का समय विक्रम-संवत् की 16वीं शताब्दी है।
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भगवान महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ