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उनकी संस्कृत - रचनायें हैं
चन्द्रप्रभचरित, करकण्डुचरित, कीर्तिकेयानुप्रेक्षाटीका, चन्दनाचरित, जीवन्धरचरित, पाण्डवपुराण, श्रेणिकचरित, सज्जनचित्तवल्लभ, पार्श्वनाथ काव्यपंजिका, प्राकृतलक्षण, अध्यात्मतरंगिणी, अम्बिकाकल्प, अष्टाह्निकाकथा, कर्मदहनपूजा, चन्दनषष्ठीव्रतपूजा, गणधरवलयपूजा, चारित्रशुद्धिविधान, तीसचौबीसीपूजा, पंचकल्याणकपूजा, पल्लीव्रतोद्यापन, तेरहद्वीपपूजा, पुष्पांजलिव्रतपूजा, सार्द्धद्वयद्वीपपूजा, एवं सिद्धचक्रपूजा । इनके द्वारा रचित हिन्दी कृतियाँ हैं महावीरछन्द, विजयकीर्तिछन्द, गुरुछन्द, नेमिनाथछन्द, तत्त्वसारदूजा, एवं अष्टाह्निकागी । भट्टारक विद्यानन्दि
विद्यानन्दि बलात्कारगण की सूरत- शाखा के भट्टारक थे। भट्टारक विद्यानन्दि के द्वारा 'सुदर्शनचरित' नामक चरितकाव्य की रचना गन्धारनगर या गन्धारपुरी में की गयी है । सम्भवतः यह सूरत नगर का ही नामान्तर है। इस कृति की रचना विक्रम-संवत् 1355 के लगभग सम्पन्न हुई है।
भट्टारक मल्लिभूषण
विद्यानन्दि के पट्ट शिष्यों में मल्लिभूषण की गणना की जाती है। इन्होंने विक्रम संवत् 1805 में सूरत एक आदिनाथमूर्ति स्थापित की थी ।
आचार्य वीरचन्द्र
भट्टारकीय बलात्कारगण सूरत- शाखा के भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति की परम्परा में लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य आचार्य वीरचन्द्र हुये हैं। वीरचन्द्र अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् थे। व्याकरण एवं न्यायशास्त्र के प्रकाण्डवेत्ता थे। छन्द, अलंकार एवं संगीत-शास्त्र की मर्मज्ञता के साथ वादविद्या में निपुण थे। साधुजीवन का निर्वाह करते हुये वे गृहस्थों को भी संयमित जीवन-यापन करने की शिक्षा देते थे।
लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य होने के कारण वीरचन्द्र का समय विक्रम संवत् 1556-1582 के मध्य है । इनके द्वारा रचित कृतियों में जो समय प्राप्त होता है, उससे भी इनका कार्यकाल विक्रम की 17वीं शताब्दी सिद्ध होता है। आचार्य वीरचन्द्र संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और गुजराती के निष्णात विद्वान् थे। इनके द्वारा लिखित आठ रचनायें प्राप्त हैं 1. वीरविलासफाग, 2. जम्बूस्वामीवेलि, 3. जिनान्तर, 4. सीमन्धरस्वामीगीत, 5. सम्बोधसत्ताणु, 6. नेमिनाथरास, 7. चित्तनिरोधकथा, एवं 8. बाहुबलिवेलि ।
आचार्य सुमतिकीर्ति
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सुमतिकीर्ति का उल्लेख भट्टारक ज्ञानभूषण के शिष्य के रूप में आता है। इन ज्ञानभूषण कर्मकाण्ड की टीका सुमतिकीर्ति की सहायता से लिखी है। ये सुमतिकीर्ति नन्दिसंघ बलात्कारगण एवं सरस्वतीगच्छ के भट्टारक वीरचन्द के शिष्य
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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