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महान् विद्वान् थे। जिनके पचासों ग्रंथ आज भी जैन-शास्त्र-भण्डारों की शोभा बढ़ा रहे हैं। वे महाकवि थे। राम-सीता-रास, हरिवंशपुराण जैसे विशाल ग्रंथ उनके द्वारा रचित हैं। यह कहना सही होगा कि यदि इन भट्टारकों द्वारा शास्त्र-भण्डारों की रक्षा नहीं होती, तो आज जैन-शास्त्र इतने समृद्ध नहीं होते। डॉ. कासलीवाल के अनुसार अकेले राजस्थान में इन ग्रंथ-भण्डारों की संख्या 200 से भी अधिक है, जिनमें तीन लाख से भी अधिक संख्या में पाण्डुलिपियों का संग्रह उपलब्ध होता है।'
राजस्थान के जिन प्रमुख भट्टारकीय-गादियों का वर्णन इतिहास में मिलता है, उनमें सबसे प्रमुख गादी 'आमेर' की मानी जाती थी। भट्टारक-सम्प्रदाय में इसे 'देहली-जयपुर-शाखा की गादी' भी कहा है। इस शाखा के भट्टारकों का काल निम्न-प्रकार रहा भट्टारकगण - दिल्ली, जयपुर शाखा कालपट
1. पद्यनन्दी, 2. शुभचन्द्र (संवत् 1450-1507), 3. जिनचन्द्र (संवत् 1507-1571), रत्नकीर्ति, सिंहकीर्ति (नागौर शाखा), 4. प्रभाचनछ (संवत् 1571-1580), 5. चन्द्रकीर्ति (संवत् 1654), 6. देवेन्द्रकीर्ति, 7. नरेन्द्रकीर्ति, 8. सुरेन्द्रकीर्ति (संवत् 1722), 9. जगत्कीर्ति (संवत् 1733), 10. देवेन्द्रकीर्ति (संवत् 1770), 11. महेन्द्रकीर्ति (संवत् 1790), 12. सुनेन्द्रकीर्ति (संवत् 1822) 13. सुखेन्द्रकीर्ति (संवत् 1852) 14. नरेन्द्रकीर्ति (संवत् 1880), 15. देवेन्द्रकीर्ति (संवत् 1883) 16. महेन्द्रकीर्ति (संवत् 1939), एवं 17. चन्द्रकीर्ति (संवत् 1975)।
इनमें से कतिपय-प्रमुख प्रभावक भट्टारकों का परिचय एवं उनके योगदान का विवरण निम्नानुसार हैभट्टारक पद्मनन्दि
संस्कृत-भाषा के उन्नायकों में भट्टारक आचार्य पद्मनन्दि की गणना की जाती है। ये प्रभाचन्द्र के शिष्य थे। कहा जाता है कि दिल्ली में रत्नकीर्ति के पट्ट पर विक्रम संवत् 1310 की पौष शुक्ल पूर्णिमा को भट्टारक प्रभाचन्द्र का अभिषेक हुआ था। ये मूलसंघ स्थित नन्दिसंघ बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छ के थे।
पट्टावलियों और प्रशस्तियों के आधार पर पद्मनन्दि का समय ईस्वी सन् की 14वीं शती है। भट्टारक पद्मनन्दि के नाम से कई स्तोत्र मिलते हैं। उनकी सुनिर्णीत रचनायें हैं - जीरापल्लीपार्श्वनाथस्तवन, भावनापद्धति, श्रावकाचारसारोद्धार, अनन्तव्रतकथा, एवं वर्द्धमानचरित। जबकि संदिग्ध कृतियाँ हैं - वीतरागस्तोत्र, शान्तिजिनस्तोत्र, एवं जीरावणपार्श्वनाथस्तोत्र। भट्टारक सकलकीर्ति
विपुल साहित्य-निर्माण की दृष्टि से आचार्य सकलकीर्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ