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है। संवत् 1548 में भट्टारक जिनचन्द्र ने 'मुंडासा' नगर में एक लाख भी अधिक मूर्तियों की प्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न किया था। यह विशाल आयोजन जीवराज पाड़ीवाल द्वारा कराया गया था। इसी तरह संवत् 1826 में 'सवाई माधोपुर' में भट्टारक सुखेन्द्रकीर्ति के तत्त्वावधान में जो विशाल प्रतिष्ठा समारोह हुआ था, उसमें भी हजारों मूर्तियों को प्रतिष्ठित किया गया था। राजस्थान में आज कोई ऐसा मन्दिर नहीं होगा, जिसमें संवत् 1826 में प्रतिष्ठापित मूर्ति नहीं मिलती हो। ये भट्टारक बाद में अपने कीर्ति स्तम्भ बनवाने लगे थे, जिनमें भटारक- परम्परा का विस्तृत उल्लेख मिलता है। ऐसा ही कीर्तिस्तम्भ पहले 'चाकसू में था, जो आजकल राजस्थान पुरातत्त्व विभाग के अधीन है और यह आमेर के बाग में स्थापित किया हुआ है। आमेर (जयपुर) में एक नशियां 'कीर्तिस्तम्भ की नशियाँ' के नाम से ही प्रसिद्ध है। इस कीर्तिस्तम्भ को संवत् 1883 में भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति ने स्थापित किया था। इसी तरह ‘चांदखेड़ी' एवं 'मौजमाबाद' में विशाल प्रतिष्ठाओं का आयोजन हुआ था। संवत् 1664 में प्रतिष्ठापित 200 से अधिक मूर्तियाँ तो स्वयं 'मौजमाबाद' में विराजमान हैं। विशाल एवं कलापूर्ण मूर्तियों के निर्माण में भी इनकी गहरी रुचि होती थी। जयपुर में पार्श्वनाथ की प्रतिमा सागवाड़ा, चांदखेड़ी, झालरापाटन में ऐसी विशालकाय एवं मनोज्ञ मूर्तियाँ मूर्तिकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
भट्टारक-संस्था का उदय 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ, जब उस युग में भट्टारक बनना गौरव की बात समझी जाने लगी थी। इसलिये भट्टारक - परम्परा सारे देश में विगत् 700 वर्षों में अक्षुण्ण रूप से चलती रही। और एक के पश्चात् एक भट्टारक होते गये और पूरा जैन समाज भी उन्हें अपना अधिकार समर्पित करता रहा।
देश में 100 वर्ष पहले राजस्थान में भी महावीर जी, नागोर एवं अजमेर में भट्टारक- गादियाँ थीं। इनके अतिरिक्त मध्यप्रदेश में सोनागिर, महाराष्ट्र में कारंजा, दक्षिण भारत में मूडबिद्री, श्रवणबेलगोला, कोल्हापुर, हुमचा आदि में भट्टारकगादियाँ वर्तमान में भी विद्यमान हैं। ये भट्टारक आगम-ग्रन्थों के वेत्ता होते थे। पूजा-पाठ, अभिषेक, विधि-विधान, पंच कल्याणक प्रतिष्ठायें, पाण्डुलिपि - लेखन नवीन साहित्य का निर्माण कार्य करते थे। अपने जीवन के आरम्भ - परिग्रह से रहित जिन-मार्ग के उपदेष्टा होते थे। 400-500 वर्षों तक तो भट्टारक समाज के एकमात्र प्रतिनिधि थे। धार्मिक मामलों के प्रवर्तक थे। मन्दिरों के संरक्षक थे, समाज के नियन्ता थे। ये मन्दिरों में रहते थे।
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भट्टारक शास्त्रों के रचयिता भी होते थे। भट्टारक सकलकीर्ति, भट्टारक शुभचन्द्र, भट्टारक ज्ञानभूषण, भट्टारक विजयकीर्ति एवं आमेर गादी के भट्टारक जगतकीर्ति, ये सभी उच्च कोटि के विद्वान् थे। ये कितने ही काव्यों के रचयिता थे। ये संस्कृत में धाराप्रवाह लिखते थे। भट्टारक सकलकीर्ति के शिष्य जिनदास तो
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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