________________
हिन्दू-धर्म के पुरोहित के समान हो गई थी। वे घरेलू संस्कारों, जन्म, विवाह एवं मृत्यु के समय क्रियाकलापों का संचालन करते थे। इतना ही नहीं वे वैद्य, ज्योतिषी व सलाहकार के रूप में भी अपनी सेवायें देने लगे। आज भी भट्टारक सामाजिक और धार्मिक अनुष्ठान करवाते हैं। इसके अतिरिक्त मन्दिर-निर्माण, मूर्ति-स्थापना आदि का कार्य भी इनकी निगरानी में सम्पन्न होता है। इसप्रकार भट्टारक महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति करते आये हैं। अपने स्वयं के ज्ञान व व्यवहार तथा अपने शिष्यों की मदद से भट्टारकों ने न केवल जैनधर्म के संदेशों को फैलाया, बल्कि उन्होंने बिखरते हुए जैन-समाज को एकता के सूत्र में पिरोया।
यह भी एक सत्य है कि भट्टारकों के न होने की स्थिति में दिगम्बर जैन-सम्प्रदाय शायद ही सम्प्रदाय बच पाता। अत्यधिक नाजुक संकट-काल में भट्टारकों ने दिगम्बर-जैन-सम्प्रदाय को विघटन व पतन से बचाया, किन्तु बाद में भट्टारक-संस्था में अनेक विकृतियाँ आने लगी थीं। ये विकृतियाँ इस सीमा तक पहुँच गई थीं कि संगठन की शक्ति-विध्वंस का रूप धारण करने लगी थी। भट्टारक आध्यात्मिक के स्थान पर सांसारिक होते जा रहे थे। वे उचित और अनुचित दोनों तरीकों से अपनी स्थिति को ऊपर उठाने व धन एकत्रित करने में संलग्न हो गये तथा अपने धार्मिक व सामाजिक कर्तव्यों की पूर्ण उपेक्षा करने लगे। इनके कार्यक्षेत्र में भी गिरावट आने लगी थी। वे सम्पूर्ण जैन-समाज के हित-साधन के स्थान पर जैनों की जाति-विशेष तक ही सीमित रह गये थे। इसके परिणामस्वरूप हम पाते हैं कि दक्षिण (महाराष्ट्र व कर्नाटक) में प्रत्येक प्रमुख जैन-जाति का पृथक् भट्टारक होता है, जो उस जाति के सामाजिक व धार्मिक जीवन को नियंत्रित करता है। स्वाभाविक तौर पर इसने विभिन्न जैन-जातियों के मध्य खाई को चौड़ा कर दिया था।
विक्रम संवत् की सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में स्थिति यहाँ तक पहुँची कि भट्टारकों के बदलते आचार-विचारों से क्षुब्ध होकर अनेक दिगम्बर जैनों ने भट्टारक-संस्था के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा दिगम्बर जैनों के एक अन्य सम्प्रदाय 'तेरापंथ' की स्थापना की। इसप्रकार भट्टारकों के मुद्दे पर दिगम्बर जैन-समाज क्रमशः 'बीसपंथी' व 'तेरापंथियों' में विभाजित हो गया। तभी से 'बीसपंथी' दिगम्बर जैन भट्टारकों में विश्वास रखते हैं, जबकि 'तेरापंथी' भट्टारकों में कतई आस्था नहीं रखते। आज भी भट्टारकों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है तथा दिगम्बर-जैनों के समक्ष आज भी यह प्रश्न अनिश्चित व अनिर्णीत स्थिति में यथावत् पड़ा हुआ है कि भट्टारक-संस्था को पूर्णतः समाप्त कर दिया जाये, अथवा बदलती हुई परिस्थितियों के अनुकूल इसे नया रूप प्रदानकर सुरक्षित रखा जाये। अधिसंख्य 'बीसपंथी' दिगम्बर-जैन इस संस्था को बनाये रखने के पक्ष में हैं; क्योंकि इनकी यह मान्यता है कि जैन-सम्प्रदाय के आध्यात्मिक जीवन की
096
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ