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श्रीनन्दि, श्रीचन्द्र, कमलकीर्ति आदि प्रमुख हैं। इन आचार्यों ने निम्नलिखित रूप में वाङ्मय की सेवा की है
1. पौराणिक चरित - काव्य, 2. लघुप्रबन्ध - कथाकाव्य, 3. दूत-काव्य, 4. न्याय - दर्शन - विषयक साहित्य, 5. अध्यात्म - साहित्य, 6. प्रबन्धात्मक प्रशस्तिमूलक ऐतिहासिक काव्य, 7. सन्धान- काव्य, 8. सूक्ति- आचारमूलक काव्य, 9. स्तोत्र और पूजाभक्ति - साहित्य, 10. नाटक, 11. विविध विषयक समस्यापूर्त्यात्मक काव्य, एवं 12. संहिता - विषयक साहित्य |
भट्टारक-युग
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आचार्यों की तरह भट्टारकों को भी धार्मिक मुखिया अथवा स्वामी माना जाता था। भट्टारकों की परम्परा दिगम्बर जैन समाज की विशेषता है। दिगम्बर जैन- सम्प्रदाय भी दो प्रमुख उपसम्प्रदायों क्रमशः 'बीसपंथी' व 'तेरापंथी' में बँटा हुआ है। बीसपंथी भट्टारक - व्यवस्था में विश्वास करते हैं तथा भट्टारकों को अपने धार्मिक मुखिया व उपदेशक के रूप में मानते हैं। 14वीं शताब्दी से ही 'भट्टारक-युग' प्रारम्भ हो गया, जो 19वीं शताब्दी तक चलता रहा । ' एक आधुनिक विद्वान् लिखते हैं कि भट्टारक - संस्था केवल दिगम्बर जैनों में ही पाई जाती है, जो मध्यकाल में स्थापित हुई । इसकी सर्वप्रथम स्थापना दिल्ली में हुई तथा उसके पश्चात् सम्पूर्ण भारत में अनेक स्थानों पर हुई। कुछ प्रमुख स्थानों में ग्वालियर, जयपुर, डूंगरपुर, ईडर, सोजितरा, नागपुर, कारंजा, लटूरा, नांदनी, कोल्हापुर, मूडविद्री, श्रवणबेलगोला, पेनूगोडा, कांची आदि हैं। अभी भी कुछ क्षेत्रों में भट्टारक काफी प्रभावशाली है; जबकि अन्यत्र भट्टारक-संस्था धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। 2 भट्टारक-संस्था की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निश्चित तौर पर कुछ भी पता नहीं है। किन्तु ऐसा कहा जाता है कि जब जैन मुनि - परम्परा ढीली पड़ने लगी, तो भट्टारक-संस्था का जन्म हुआ। मुस्लिम शासकों को जैन साधुओं दिगम्बरत्व पसंद नहीं था, इसलिये नग्न- -मुनियों के भ्रमण पर रोक - सी लग गई थी। इस समय जैन - समुदाय में विखंडन की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। उस समय जैनन-समुदाय में भारी अनिश्चितता व असुरक्षा व्याप्त थी, तो ऐसी विकट स्थिति में जैनधर्म को विध्वंस से बचाने के लिये भट्टारकों का उदय हुआ। ये भट्टारक वस्त्र धारण करते थे, तथा वे सामाजिक व धार्मिक दोनों प्रकार के कर्त्तव्यों का निर्वहन करने लगे। इनका पद जैन- समाज में सामान्य श्रावक से ऊपर व मुनियों से नीचा माना जाता है। भट्टारकों के अधिकार क्षेत्र भी निर्धारित थे तथा वे अपने अधिकार - क्षेत्र में जनसमुदाय में आत्मचेतना को बनाये रखने का कार्य करते थे। वह अपने समुदाय की आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। उनकी स्थिति धीरे-धीरे
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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