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अलबेली आम्रपाली ३१५
वीणा के तीन ग्रामों पर थिरकती रागिनी आम्रपाली के हृदय को मथ रही
थी ।
इस महान् साधक के बाहुबंधन में बंध जाने की लालसा उभर उभरकर हृदय को प्रकम्पित कर रही थी ।
परन्तु यह संकोच कैसा ? जब मिलन के मधुर क्षण निकट आते हैं, क्या तभी तीन-तीन वर्षों तक पुष्ट होने वाला अभिमान अपनी समग्र शक्ति से जागृत हो जाता है ।
मगधेश्वर की पलकें मंदी हुई थीं। क्योंकि वे विरह की रागिनी में तन्मय हो गये थे ।
संकोच का विराट् भार होने पर भी मन में अभिमान का आदेश गुंजित रहने पर भी, देवी आम्रपाली मानो स्वयं को कोई खबर ही न हो, इस प्रकार प्रियतम की ओर धीरे-धीरे चलने लगी । उसके नयन प्रियतम की सौम्य, सुन्दर और भव्य मुद्रा पर स्थिर थे । ओह ! आज रक्षराज स्वयं चलकर सामने आया है, फिर यह संकोच क्यों ?
राग में भस्त बने हुए श्रेणिक के नयन खुले खुलते ही उसकी दृष्टि थोड़ी दूरी पर अवाक्, स्थिर और गम्भीर भाव से खड़ी प्रियतमा पर पड़ी ।
उसी क्षण उसने वीणा को एक ओर रख दिया - नयन दीप्त हो गए वह अचानक खड़ा हो गया। वह तेजी से कदम उठा सामने गया । आम्रपाली की दृष्टि स्वतः ही नीचे झुक गयी और किंकर्त्तव्यविमूढ़-सी खड़ी रही। वह निश्चय नहीं कर पा रही थी कि उसे वहां से चले जाना चाहिए या उल्लास व्यक्त करने के लिए प्रियतम से लिपट जाना चाहिए ।
जब व्यक्ति आशा और अभिमान के बीच फंस जाता है तब मन की स्थिति विचित्र बन जाती है । आम्रपाली कुछ भी निर्णय करे, उससे पूर्व ही बिंबिसार आगे आया और प्रियतमा को मुग्ध नजरों से देखता रहा । आम्रपाली नजरों में समा गयी । माविका अभी भी द्वार के पास ही खड़ी थी। वह तत्काल चली गयी । द्वार पर पड़ा सोनेरी परदा हंस रहा था ।
बिबिसार ने पूछा - "प्रिये ! मुझसे कोई अपराध हुआ है ?"
आम्रपाली ने बाहुपाश से मुक्त होने का प्रयत्न नहीं किया । उसने अपनी मंदी आंखें भी नहीं खोलीं । कम्पित अधर शांत हो गए थे। आज तीन-तीन वर्षों दीर्घ अन्तराल के बाद। हृदय की धड़कन बढ़ गयी थी ।
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"पाली ! अनजान में यदि कोई अपराध हुआ हो तो तू अपने जयकीर्ति को क्षमा कर दे । बोल, तूने मेरे चार-चार संदेशों का कोई उत्तर नहीं दिया. मेरा हृदय कितनी पीड़ा का अनुभव कर रहा था । कर्त्तव्य के पालन में प्रिय से प्रिय वस्तु भी त्याग करना होता है ।"