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३१४ अलबेली आम्रपाली
६४. प्रिया और प्रियतमा
अनेक दिनों के बाद बिंबिसार आज वीणावादन की मस्ती में समय और स्थान को भी भूल बैठे थे ।
तीन ग्रामों पर छिड़ने वाला वीणा का कल्लोल सप्तभूमि प्रासाद की छठी मंजिल पर ही नहीं, सारे भवन को अपने अधिकार में ले रहा था ।
दासदासी अवाक् बन गए थे. कुतूहलवश भी कोई छठी मंजिल पर जाने का साहस नहीं कर पा रहा था ।
राग में अन्तर की अदृष्ट वेदना मूर्त हो रही थी मानो विरहाग्नि में जलती हुई वीणा लाख-लाख आंसू बहाकर अन्तर् की अग्नि की आंच को मंद करने का प्रयत्न कर रही थी ।
आम्रपाली का अधीर मन वस्त्र-सज्जा की ओर अपना ध्यान नहीं दे पाया । आम्रपाली अपने शयनकक्ष में जाने के लिए आकुल व्याकुल हो रही थी ।
वसंतिका आम्रपाली का उत्तरीय ठीक कर रही थी, परन्तु आम्रपाली ने उत्तरीय को ऐसे ही धारण कर लिया ।
शिशिरा वज्र के बाहुबंध बांधने का उपक्रम कर रही थी, परन्तु आम्रपाली ऐसे ही चल पड़ी ।
रोहिणी बोल उठी- "देवि ! अभी अंजन शेष है ... अलंकार..."
बीच में ही आम्रपाली ने कहा - "रहने दे । क्षुद्र पदार्थ नारी को आकृष्ट नहीं करते।"
इतना कहकर आम्रपाली वस्त्रखंड से बाहर निकली। माध्विका उसके पीछेपीछे चल रही थी । शयनगृह के द्वार के निकट आते ही आम्रपाली बोली"माधु ! गुलाबी शीतकाल का प्रारम्भ हो गया है । ऊष्मा और प्रेरणा का अमृत मैरेय ले आना ।"
"जी, परन्तु
..."
माविका का वाक्य पूरा नहीं हुआ । आम्रपाली खंड में प्रविष्ट हो चुकी थी । वह माविका को कुछ कहे, उससे पूर्व ही उसकी दृष्टि वीणा वादन में मस्त हुए प्रियतम की ओर चली गयी। तीन वर्षों का वियोग ! उस दिन यह प्रियतम जयकीर्ति था और आज मगधेश्वर ।
उसके चरण कुछ आगे बढ़े, पर वे रुक गए। मन में अधीरता उभर रही और त्वरित गति से प्रियतम से मिलने के लिए हृदय प्रकम्पित हो रहा था... परन्तु न जाने कहां से विराट् संकोच दोनों चरणों के लिए बेड़ी बनकर आ गया
था ।