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अलबेली आम्रपाली २५५
मन नंदा के प्रति विशेष आकर्षित हो रहा था। वह जैसे-जैसे नंदा के सम्पर्क में जाता, वैसे-वैसे उसके मन की भावना प्रबल बनती कि यदि नंदा जैसी रूपवती, पवित्र और धार्मिक नारी जीवन-संगिनी मिल जाए तो जीवन धन्य हो जाए।
नंदा भी इस नूतन अतिथि के प्रति आकर्षित थी। वह अपने मनोभाव को अव्यक्त रखने में कुशल थी। वह सदा इस बात का ध्यान रखती थी कि किसी को यह संदेह भी न हो पाए कि वह इस नये अतिथि के प्रति इतनी आकृष्ट है । फिर भी जब वह सोती तब मधुर स्वप्नों में ही रात बीत जाती।
नंदा के अनेक सखियां थीं। परन्तु किसी ने भी इसकी तड़फ को नहीं पकड़ा। स्त्रियां कितनी ही चतुर क्यों न हों, वे अपने हृदय की बात अपनी प्रिय सखियों को कहे बिना नहीं रहती । परन्तु नंदा इसका अपवाद थी।
दिन में चार बार नंदा और बिंबिसार मिलते। दोनों के बीच कुछ बातें भी होतीं। इतना होने पर भी बिंबिसार नंदा के मनोभावों को पकड़ नहीं सका।
पुरुष जब किसी भी नारी के प्रति आकृष्ट होता है तब वह उसके मन की थाह लेने जितना धर्य रख नहीं सकता और वह अपनी पत्नी के सहवास में वर्षों तक रह जाने पर भी पत्नी के हृदय की धड़कनों की भाषा समझ नहीं सकता।
पुरुषों का यह दोष स्वभावगत है, जन्मजात है । बिबिसार यदि नंदा के मन को नहीं पढ़ सका तो कोई बात नहीं है । परन्तु स्वयं का मन अति स्पष्ट हो गया था। उसे वह प्रतीत होने लगा कि यदि जीवन में नंदा का साहचर्य नहीं मिल पाया तो वह जीवन व्यर्थ चला जाएगा और उसमें जीवन-माधुरी कभी नहीं आ सकेगी।
परन्तु यह बात नंदा के समक्ष कसे रखी जाए? यह प्रश्न-बिंबिसार को सदा उलझाता रहता था। नंदा से कैसे बातचीत की जाए, इस विषय में उसके मन में अनेक कल्पनाएं आतीं, परन्तु जब नंदा सामने आती तब वह कुछ भी नहीं कह पाता। बहुत बार नारी का व्यक्तित्व पुरुष के लिए छाया बन जाता है। बहत बार पुरुष का व्यक्तित्व नारी के लिए आश्रय बन जाता है । परन्तु नंदा का प्रभाव अपूर्व था। बिंबिसार अपने मन के वेग को व्यक्त नहीं कर पाता था।
इसलिए देवी आम्रपाली से भी अधिक प्रेम नंदा के प्रति उसके प्राणों में संचित हो रहा था।
सोमवार को सूर्यास्त से पूर्व सेठ धनदत्त ने बिबिसार से कहा- "जयकीति ! मुझे आज गोदाम में जाना है।' 'तुम भी साथ चलो।"
दोनों गोदाम में गये।
सेठ ने कहा-"जयकीति ! एक दिन वह था जब पहां माल समाता नहीं था, और आज यह खाली पड़ा है।"
"सेठजी ! यह कर्मों की लीला है। लक्ष्मी चंचल है। फिर भी हमें पुरुषार्थ