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२४४ अलबेली आम्रपाली
हए भी मैं आप पर कोई आरोप लगाना नहीं चाहती किन्तु आप उच्च कुलोत्पन्न हैं । इसमें कोई संशय नहीं है । आज प्रात: जीवन और जीवन की सारी आशाओं की होड़ लगाकर एक वृद्धा नारी के प्राणों को बचाने वाला व्यक्ति कभी सामान्य नहीं हो सकता। आपका भव्य ललाट, विराट् वक्षस्थल, तेजस्वी नयन और गंभीर मुखाकृति--ये असामान्य व्यक्ति के परिचायक हैं।
बिंबिसार ये शब्द सुनकर चौंके । यह नारी कितनी चतुर है ? मात्र आकृति से परख कर सकने में समर्थ है । वे गंभीर मुद्रा में विनीत स्वरों से बोले-"देवि ! जिसकी आंखों में अमृत हो वह सबको उत्तम ही देखती है। मैं उच्च कुलोत्पन्न हं आपका यह अनुमान सही है । परन्तु कर्म की गति विचित्र है । कर्मों का मारा मैं इस नगरी में आया हूं। मैंने आज प्रातः ऐसा कोई कार्य नहीं किया है, जिसकी प्रशंसा की जाए। मैं मगध के एक गांव में रहता था, गंगा में तैरने का अभ्यास बचपन से ही था। मैंने आज केवल अपना कर्तव्य निभाया है।"
"आपके माता-पिता?"
"माता नहीं है, पिताश्री विद्यमान हैं। पारिवारिक क्लेश के लिए मुझे घर छोड़ना पड़ा है।"
कामप्रभा दो क्षण स्थिर दृष्टि से देखती रही, फिर बोली-“आपकी पत्नी..?"
बिंबिसार मौन रहा।
कामप्रभा कुछ और प्रश्न करे, उससे पूर्व ही परिचारिकाओं ने भोजन के दो थाल ला उसी कक्ष में रख दिए।
सामान्य बातचीत करते-करते दोनों ने भोजन कर लिया।
मुखवास आदि से निवृत्त होने के बाद कामप्रभा ने कहा-"श्रीमन् ! आपके सम्मान के लिए मेरे कलाकार आपको मनोरंजन देना चाहते हैं। परन्तु उससे
पूर्व...?"
"क्या?" "आप मेरेय, सीधु, वारुणी, आसव'जो कोई प्रिय हो, वह..?" "क्षमा चाहता हूं। मैं मादक द्रव्य का सेवन नहीं करता।" "आप पार्श्वगच्छीय हैं ?" "नहीं देवि ! मेरी मातुश्री जैन दर्शन की उपासिका थीं।"
कामप्रभा बिबिसार का सत्कार करना नहीं चाहती थी, वह तो और कुछ चाहती थी वह यौवन की छलकती मादकता को और अधिक उग्र बनाना चाहती थी। प्रातः सिप्रा नदी के पास बिबिसार को देखते ही कामप्रभा का अन्तर्मन बोल उठा था-"ऐसा पुरुष भाग्यवती को ही प्राप्त हो सकता है।"