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अलबेली आम्रपाली २२६
"आश्रम जीवन अत्यन्त कठोर है।" "मुझे कोई आपत्ति नहीं है।" "पथ्य भी बहुत कठोर है।" "मैं उसका पालन करूंगी।" "और तू मुझे क्या दे सकेगी?" वृद्ध आचार्य ने हंसते हुए कहा ।
कादंबिनी बोली- "मेरे पास कुछ स्वर्ण हैं । थोड़े अलंकार भी हैं। वे सब।"
बीच में ही आचार्य बोले--"पुत्रि ! स्वर्ण तो यहां ढेर सारा पड़ा है, क्योंकि मैं मिट्टी और स्वर्ण में कोई भेद नहीं करता । अलंकारों का हम फक्कड़ करें ही क्या? मैं तो तेरे से किसी बहुमूल्य वस्तु की इच्छा करता हूं।"
कादंबिनी निराश हो गई । वह दबे स्वर में बोली----"गुरुदेव ! मेरे पास और कोई बहुमूल्य वस्तु नहीं है । आप अपनी पुत्री पर उपकार करते हैं, यह मानकर।"
बीच में ही गोपालस्वामी प्रसन्न स्वर में बोल पड़े-"कादंबिनी ! प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में कीमती वस्तु होती ही है । तू विषमुक्त बनकर भी यदि विषकन्या ही बनी रहेगी तो मेरा प्रयत्न व्यर्थ जाएगा।"
"गुरुदेव !"
आचार्य बोले- "तेरा नाड़ी-परीक्षण करने के पश्चात् मुझे यह आत्मविश्वास हो गया है कि तू विषमुक्त बन सकेगी। उस समय तेरे हृदय में दबी उमंगें उछलने लगेगी । तेरी मत्यु भी नहीं होगी । प्रयोग सहने की शक्ति भी तेरे में है। परन्तु प्रयोग पूरा होने के पश्चात् तुझे नथे जीवन में प्रवेश करना होगा। तुझे अतीत को भूलना होगा। मेरी दक्षिणा के रूप में तुझे एक वचन देना होगा।"
"आज ही मैं वचनबद्ध होने के लिए तैयार हूं।" ___'वेश्यावृत्ति से सदा तुझे दूर रहना होगा। जो नारी विलास और वैभव की लालसा से गृहीजीवन से दूर रहती है, वह नारी समाज के लिए विषकन्या के समान ही है। विषमुक्त होने के पश्चात् तुझे किसी परिवार की कुलवधू बनना होगा अथवा जीवन भर ब्रह्मचारिणी रहना होगा। क्या तू यह वचन दे सकेगी?"
हर्षभरी मुद्रा में कादंबिनी ने गुरु-चरणों का स्पर्श किया और हाथ जोड़कर बोली-“गुरुदेव ! आपकी आज्ञा के अनुसार आज ही प्रतिज्ञाबद्ध हो जाती हूं कि मैं किसी भी आकर्षण के वशीभूत होकर नारी-धर्म का त्याग नहीं करूंगी। मैं किसी सभ्य परिवार की कुलवधू बनं गी अथवा ब्रह्मचारिणी रहूंगी।"
__ "पुत्रि ! आज मुझे अग्रिम दक्षिणा मिल गई और वह भी सर्वोत्तम । अब तू जा। कल आ जाना।" गोपालस्वामी ने प्रसन्नता से कहा।
कादंबिनी ने चरणरज मस्तक पर चढ़ाई और वहां से विदा हो गयी।