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१५८ अलबेली आम्रपाली
बिबिसार ने वीणा पर स्वरान्दोलन प्रारम्भ किया।
सप्तभूमि प्रासाद के वसंतगृह में इस प्रकार चंद्रनंदिनी राग की आराधना हो रही थी और नगरी के पूर्वांचल में स्थित एक मकान में एक हजार लिच्छवी युवक अपने नेता शीलभद्र को सुनने के लिए एकत्रित हुए थे। शीलभद्र के तूफानी प्रवचन से सभी युवकों के हृदय में आग लग गई और उस आग में मगध के युवराज बिंबिसार को भस्मसात् करने की उत्कट लालसा उभर आई। लिच्छवी युवक बार-बार चिल्ला रहे थे-"बिंबिसार का वध करो। जनपदकल्याणी को शत्रु के शिकंजे से मुक्त करो । वैशाली के कलंक को धो डालो।" __ जिसके लिए ये नारे लगाए जा रहे थे, वह बिबिसार वीणावादन में मस्त बन रहा था । चंद्रनंदिनी राग सारे वातावरण में नया उल्लास, नयी प्रेरणा, सौरभ और जीवन की माधुरी बिछा रहा था।
वहां के सभी उपस्थित जन बिंबिसार के वीणावादन को सुनकर अपने आपको धन्य-धन्य अनुभव कर रहे थे।
चिन्ता से निस्तेज बनी हुई आम्रपाली चन्द्र नन्दिनी के स्वर-स्पर्श से धीरेधीरे प्रसन्न और प्रफुल्ल बन रही थी।
हृदय का स्पर्श करने वाला राग अपना प्रभाव दिखाए बिना नहीं रहता।
चंद्रनंदिनी राग से पार्वती का विषाद दूर हुआ था । आज आम्रपाली का विषाद घुल रहा था । रागिनी जीवन के परम आनन्द का स्वरूप व्यक्त कर रही थी और एक ही संदेश दे रही थी-चिन्ता, निराशा, शोक और दर्द-ये सभी मानवीय मन से सृष्ट ज्वालाएं हैं। प्रेम, आनन्द, समर्पण और उल्लास ये ही जीवन की परम शांति के सूत्र हैं।
रागिनी आम्रपाली के अन्तर् में आकर कह रही थी-"अरे, तू तो पूर्व भारत की अलबेली अप्सरा है, अलबेली नृत्यांगना और अलबेली चिर-यौवना है। तेरी मदभरी मस्ती संसार की एक माधुरी है । तुझे कोई दर्द नहीं है, कोई वेदना नहीं है । तू स्वयं आशा और आनन्द की प्रतिमा है. 'तू अपनी प्रफुल्लता से अपने स्वामी को धन्य बना। इसके पाथेय में दर्द मत उंडेल । उसमें आशा के अमृत डाल । वियोग से क्यों कांप रही है ? वियोग तो प्रेमियों का तप है, मूल्यांकन का नाप है।" - जैसे-जैसे रागिनी खिलती गई, वैसे-वैसे आम्रपाली के वदन पर स्वाभाविक श्री दिव्य होने लगी।
चंद्रनंदिनी राग की आराधना करते-करते एक प्रहर बीत गया। चौथा प्रहर प्रारम्भ हुआ। रागिनी कब पूरी होगी, यह कल्पना किसी को नहीं हो सकती थी''सभी उस राग में तन्मय हो गए थे।
बिंबिसार मात्र दो ग्राम पर ही क्रीड़ा करते थे । वे जानते थे कि तीन ग्रामों