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सभी हंस पड़ी 1
सुदंत आगे आया। लखी ने पुनः प्रश्न किया।
सुदंत अन्यान्य पारधी युवकों से अत्यधिक शरमालु प्रकृति का था । उसको स्त्रियों के साथ बातचीत करना, परिहास करना - आदि का शौक नहीं था । वह एक ओर खड़ा रहकर बोला- 'लखी बहिन ! तुम मानो तो मैं सच - सच बताऊं ।'
सभी सखियां सुदंत की ओर देखने लगीं।
सुदंत बोला- 'आज हम कहां जाने वाले हैं। इसकी खबर न मुझे है और न
इसको ।'
राजी तत्काल बोल पड़ी - वाह रे सुदंत वाह ! पांच ही दिनों में तू इतना हुशियार हो जाएगा, ऐसा तो हमने नहीं माना था। दोनों नहीं जानते, तो फिर
कौन जानता है ? '
सुदंत ने हंसते हुए कहा - 'जानती है यह चांदनी रात और वनप्रदेश में बंधा हुआ झूला ।'
लखी वासरी की साथल पर चिकोटी काटते हुए बोली-'अभी कलयुग आने में समय शेष है। तुझे सारा ज्ञात है, फिर भी तू इतनी भोली बन रही है कि मानो कुछ भी नहीं जानती । '
'अरे! वासरी! तू भी तो इतनी गहरी बन गई
हैं ? '
? क्या सखियां पराई
वासरी ने राजी का हाथ पकड़ कर मधुर स्वरों में कहा - ' राजी ! क्या करूं? इसने मुझे कहने की मनाही की थी, अन्यथा मैं सखियों से 'अच्छा, बहिन ! जितना छुपाना हो उतना छुपाती आंखें कुछ भी छुपा नहीं पाएंगीं बेचारी आंखें ! लखी ने एक नया प्रश्न फेंका - 'हे वासरी ! झूला एक बांधा है या दो ?' वासरी ने तत्काल प्रतिप्रश्न किया- ' वनवीर ने कितने झूले बंधाए थे?' 'परन्तु हम तेरी तरह आधी रात में भयंकर वन में नहीं जाते थे।' लखी
कोई बात छुपाती ?" किन्तु
रहना राजी ने कहा ।
बोली |
गया।
'इसको वन बहुत प्रिय है
' और तुझे क्या प्रिय है ?' राजी ने पूछा।
वासरी कुछ कहे, उससे पहले ही सुदंत झोंपड़ी से बाहर जाकर खड़ा रह
सभी सखियों ने सुदंत की ओर देखा। उसके कंधों पर बाणों का तूणीर एक हाथ में धनुष था और दूसरे हाथ में छोटा-सा कटोरदान जैसा
था।
बरतन था ।
२२ / पूर्वभव का अनुराग