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सुदंत ने बालम को विदा कर झोंपड़ी को झांपे से बंद कर दिया, फिर भी चारों ओर दृष्टि डाल कर देख लिया कि कोई कहीं छुपा तो नहीं है।
एक ओर खाट बिछा हुआ था और दूसरी ओर धरती पर पल्लवशय्या बिछी हुई थी।
पुरुष और प्रकृति! नर और नारी!
पुरुष या स्त्री चाहे वनवासी हो या संस्कारी, धनवान् हो या गरीब! मनुष्य ही क्यों, प्राणीमात्र का विचार करें तो प्रतीत होता है कि सभी कामराग में मदमस्त बनने की कामना करते हैं, कामरागी हैं। अनन्त जन्मों के ये संस्कार प्रत्येक प्राणी के साथ रहते हैं। जब तक ये संस्कार नहीं छूटते तब तक जीव संसार से मुक्त नहीं हो पाता।
सुदंत ने एक ओर बैठी वासरी से तुतलाते हुए कहा-'वासरी!..'
वासरी के हृदय में कंपन होने लगा.... किन्तु वह सुदंत की ओर देख नहीं सकी।
सुदंत धीर-धीरे पत्नी के पास गया और बाहु पकड़कर बोला-'चल, खाट पर बैठकर मदिरापान करें।'
वासरी ने हिम्मत कर सुदंत की ओर देखा.... कैसा वज्रकाय पुरुष है। वनमहिष को धराशायी करने वाले पुरुष को पतिरूप में पाकर वह धन्य हो गई। धन्य-धन्य हो गई।
सुदंत ने दोनों हाथों का सहारा देकर पत्नी को उठाया।
झोंपड़ी के बाहर मधुर चांदनी बरस रही थी। ...... चांद की रश्मियां झोंपड़ी के छिद्रों से भीतर प्रवेश कर चुकी थी।... आकाश स्वच्छ था..... न था मेघ और न थी आंधी।
परंतु नरनार का मिलन आषाढ़ की विद्युत् जैसा प्रकंपित करने वाला होता है और इसका अनुभव वे दोनों युवा हृदय कर रहे थे ।
३. दो युवा हृदय वासरी और सुदंत के सहजीवन का आज पांचवां दिन था। कार्तिक कृष्णा पंचमी की रात।
समूचे वनप्रदेश पर शीतल मधुर चांदनी फैल गई थी। रात्रि का प्रथम प्रहर कभी का पूरा हो गया था। भोजन से निवृत्त होकर पारधी के परिवार अपनीअपनी झोंपड़ियों के परिसर में बैठकर बातें कर रहे थे। किसी-किसी झोंपड़ी में युवा पारधी एकत्र होकर मदिरापान करने में मशगूल थे और अपनी-अपनी प्रियतमाओं की बातें कर रहे थे।
पूर्वभव का अनुराग / १९