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और दूध पक रहा था।
नवदंपति अब प्रत्येक झोंपड़ी पर रंगभरी हथेलियों के छापे लगाने जाने वाले थे। उनके साथ पांच स्त्रियां और पांच पुरुष साथ-साथ चल रहे थे।
__यह कार्य संपन्न होने पर सभी स्त्री-पुरुष भोजन के लिए बैठे। मध्याह्नोपरांत भोजन से सभी निवृत्त हो गए और मदिरा के भांड भी खाली होने लगे।
इस प्रकार सायंकाल के समय तक लग्नोत्सव की रस्म पूरी हो गई।
अब वासरी को विदाई देनी थी। मुखिया ने वासरी को हृदय से लगा कर कहा- 'बेटी! पति का ध्यान रखना। उसकी आज्ञा में रहना। भगवान को याद रखना।'
वासरी की मां ने वासरी को गले लगाकर गद्गद् स्वर में आशीर्वाद दिया और संस्कारों को उज्ज्वल रखने की प्रेरणा दी। फिर माता-पिता ने वृक्ष की छाल से बनी एक मंजषा को बाहर निकाला। उसमें वासरी के लिए कुछेक वस्त्र...... शंख, सीप, कौड़ियों से बने कुछ अलंकार थे। उसमें एक चांदी का हार, कंगन और झूमके थे।
सूर्यास्त के पश्चात् धूमधाम के साथ कन्या को विदाई दी गई। मुखिया ने अपनी कन्या वासरी को दो गायें, दस भेड़ें, दस बकरियां और कुछेक हाथीदांत दिए। यह दहेज उत्तम माना जाता था।
नवदंपति अपनी झोंपड़ी में आ गए। पहंचाने वाले वहां मदिरापान कर अपने-अपने घर लौट गए।
अब वासरी और सुदंत! अपना घर! नीरव रात्रि और मधुर एकान्त!
यह झोंपड़ी नहीं पल्लीवासियों का भवन था। यहां न गद्दी थी और न तकिया। फिर भी सुदंत की बहिन ने यहां वनपल्लव और कमलपत्रों की एक शय्या तैयार कर दी थी। उस पर एक वल्कल बिछा दिया गया।
वनस्पति के रस का एक दीपक मधुर प्रकाश बिखेर रहा था। सुदंत ने झोंपड़ी का द्वार ढंक दिया। उसी समय एक ओर बिछे खाट के नीचे से एक आदमी निकल कर बोला-'अरे जल्दी क्या है? मुझे बाहर तो जाने दो....।'
'तुम कहां थे बालम?'
'खाट के नीचे सो गया था। अच्छा, अब झांपा. तो खोल, मैं बाहर चला जाऊं?......
वासरी मानो लज्जा के बोझ से नीचे दब-सी गई थी। ...... वह एक ओर जड़वत् बैठ गई। देह लज्जा से दब गया था, परन्तु मन अनेक रंगीन तरंगों को संजोए हुए उछल-कूद कर रहा था। १८ / पूर्वभव का अनुराग