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श्लिष्ट- इसमें ध्याता का ध्येय के साथ श्लेष हो जाता है। किन्तु एकात्मकता नहीं होती। स्थिर होने से आनन्दमय बना हुआ चित्त श्लिष्ट कहलाता है।35
सुलीन - सम्यक् प्रकार से लीन होना।36पांचवीं भूमिका में मन की स्थिरता चरमोत्कर्ष पर पहुंच जाती है। यहां भी मन का अस्तित्व या उसकी गति समाप्त नहीं होती। हेमचन्द्राचार्य ने कहा- सम्यक् प्रकार से लीन होना ही निश्चल मति है। जैसे पानी दूध में मिलकर अपना अस्तित्व खो देता है। वैसे ही इस भूमिका में ध्याता और ध्येय एक रूप बन जाते हैं। यह अवस्था एक ही दिन में प्राप्त नहीं होती। निरन्तर प्रयत्न करते रहने से एक न एक दिन यह स्थिति अवश्य प्राप्त हो जाती है।
निरुद्ध- यहां मन बाह्यालम्बनों से शून्य होकर केवल आत्मस्थ बन जाता है।8 छट्ठी भूमिका में ध्येय की स्मृति भी समाप्त हो जाती है। यह निरालम्बन ध्यान या सहज चैतन्य के उदय की भूमिका है। इसमें प्रत्यक्षानुभूति प्रबल हो जाती है। इसमें चित्त का स्थायी निरोध हो जाता है, कोई विकल्प या, कल्पना नहीं, केवल प्रकाश है, केवल चैतन्य है।39
मन की पहली भूमिका में मन का झुकाव बाहर की ओर होता है। मन की दूसरी और तीसरी में विकल्प, कल्पनाओं का सिलसिला चालू रहता है। मन का आकर्षण अन्य वस्तुओं पर होता है। फल स्वरूप हम सहज चेतना के स्तर पर नहीं रहते। चौथीपांचवीं भूमिका में विकल्पों की भीड़ कम हो जाती है। मन एक विकल्प पर स्थिर हो जाता है। उसका प्रभाव अन्त:स्रावी ग्रंथियों पर पड़ता है। फलतः आनन्द की अनुभूति अधिक होती है। अन्तिम निरोध की भूमिका में सहज आनन्द के साथ साक्षात् संपर्क स्थापित हो जाता है। पूर्व भूमिकाओं की तुलना में आनन्द की पूर्ण अनुभूति निरोध की भूमिका में ही होती है।
पातंजल योग-दर्शन में इनका चित्तवृत्तियों के रूप में उल्लेख मिलता है। वहां क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र, निरुद्ध- यह क्रम दिया गया है। स्वामी विवेकानंद ने क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्रता। को मानसिक विकास के चार स्तर बताए है।
महर्षि अरविंद ने मानसिक विकास, आरोहण के चार प्रकारों का उल्लेख किया है।41
1.उत्कृष्ट मन 3. अन्तः प्राज्ञ मन
2. प्रदीप्त मन 4. ऊर्ध्व मन
क्रिया और मनोविज्ञान
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