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या ध्वनि अवश्य होती है। वैशेषिक शब्द को पुद्गल की पर्याय नहीं मानते। वे इसे आकाश द्रव्य का गुण मानते हैं। इससे विपरीत सांख्य दर्शन शब्द-तन्मात्र से आकाश की उत्पत्ति मानता है। जैन दर्शन की मान्यता इन दोनों से सर्वथा भिन्न है। उसका मन्तव्य है कि शब्द पौद्गलिक है। वह इन्द्रिय का विषय बनता है। अपौद्गलिक आकाश पौद्गलिक शब्द को पैदा नहीं कर सकता और न पौद्गलिक शब्द अपौद्गलिक आकाश का गुण हो सकता है। शब्द पुद्गल है यह विज्ञान सम्मत है। इसके अलावा निम्नोक्त आधारों पर भी शब्द को आकाश का गुण मानना युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता। (1) आकाश अमूर्त है, शब्द मूर्ती अमूर्तिक द्रव्य का गुण अमूर्त ही होगा,
मूर्त नहीं। शब्द टकराता है। प्रतिध्वनि होती है। वह अमूर्त आकाश का गुण हो तो न टकरायेगा, न प्रतिध्वनि ही होगी। शब्द को रोका और बांधा जा सकता है। आकाश का गुण मानने से रोकने और बांधने की बात युक्ति संगत प्रतीत नहीं होती है। शब्द गतिमान है, आकाश निष्क्रिय है। इस दृष्टि से भी आकाश के गुण होने
की संगति नहीं बैठती। वैज्ञानिक दृष्टि से भी शब्द ऐसे आकाश में गमन नहीं कर सकता, जहां किसी प्रकार का पुद्गल न हो। यदि शब्द आकाश का गुण होता तो वह आकाश के हर कोने में गमन कर सकता क्योंकि गुण अपने गुणी के प्रत्येक अंश में व्याप्त रहता है।38 ___ जैन आगम साहित्य में शब्द पौद्गलिक कहने के साथ उसकी उत्पत्ति, शीघ्रगति, लोक-व्यापित्व, स्थायित्व आदि विभिन्न पहलुओं पर भी विस्तृत विवेचन किया गया है। उच्च श्रवणोत्तर ध्वनि
50 हजार से अधिक गति वाली ध्वनि हाई अल्ट्रा सोनिक मानी जाती है। लघु श्रवणोत्तर ध्वनि
मनुष्य प्रति सैकिन्ड 2000 से कम और 20 हजार से अधिक चक्र वाली ध्वनि को सुन नहीं सकता। शब्द नाना स्कंधों के संघर्ष से उत्पन्न होता है। यही कारण है ध्वनि का स्वरूप कंपन युक्त होता है। जैसा कि कहा है-It is a common experience 298
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया