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2. इन्द्रिय परिणाम- एक निश्चित विषय का ज्ञान करने वाली चेतना इन्द्रिय कहलाती है। ज्ञान आत्मा का धर्म है इसलिये आत्मा और ज्ञान दो नहीं हैं। बद्धावस्था में आत्मा का विषय के साथ सीधा सम्पर्क नहीं होने से ज्ञान-प्राप्ति में कठिनाई होती है। उस समय ज्ञान - प्राप्ति का माध्यम बनता है- इन्द्रिय। इन्द्रिय रूप परिणमन दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त प्राप्त होता हैं। इन्द्रियां पांच हैं
इन्द्रिय
श्रोत्रेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय रसनेन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय
3.कषाय परिणाम- कषाय आत्मा की एक उत्तप्त अवस्था है। यह आत्मा का स्वभाव नहीं, विभाव है। जब तक मोह से मुक्ति नहीं होती है तब तक क्रोधादि रूप में परिणमन होता रहता है। इसी को कषाय परिणाम कहा जाता है। इसके मुख्य चार प्रकार हैं -क्रोध, मान, माया और लोभा
4.लेश्या परिणाम-तैजस् शरीर के साथ काम करने वाली चेतना अथवा भावधारा
और मन की प्रवृत्ति का नाम योग है। योग स्थूल स्पंदन है, यह वीर्यान्तराय कर्म के क्षयक्षयोपशम तथा नामकर्म के उदय से होता है। योग रूप परिणमन ही योग परिणाम है।
6. उपयोग परिणाम- यह जैनों का परिभाषिक शब्द है। ‘उवओगलक्खणो जीवो कहकर भगवती आदि में उपयोग को जीव का लक्षण माना गया है। ज्ञान और दर्शन रूप चेतना का व्यापार ही उपयोग है। साकार-अनाकार (ज्ञान-दर्शन) उपयोग रूप परिणमन उपयोग परिणाम है।
7.ज्ञान परिणाम- ज्ञान का अर्थ है- जानना। यह जीव-अजीव का विभाजक तत्त्व है। संसार के सभी जीवों में न्यूनतम ज्ञान की मात्रा अवश्य होती है। ज्ञान के 5 भेद है। मतिज्ञानादि रूप परिणति ज्ञान परिणाम है।
___8. दर्शन परिणाम- दर्शन अर्थात् तत्त्वश्रद्धा। सम्यक् श्रद्धा रूप परिणमन दर्शन परिणाम है।
9.चारित्र परिणाम- चारित्र मोहनीय कर्म के विलय से चारित्र प्राप्त होता है। मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियां हैं। उनमें अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क और सम्यकत्व 288
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया