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2. गुणात्मक गति- एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में रूपान्तरण हो जाना। 3. परिणामात्मक गति-किसी वस्तु की मात्रा में वृद्धि या कमी होना।
देशीय गति- वस्तु का स्थानान्तरण हो जाना। अरस्तु का यह अभिमत जैन दर्शन के समकक्ष ही है। गति दो रूपों में
होती हैं- (1) रूपान्तरण (2) देशान्तर प्राप्ति। उमास्वाति ने धर्म, अधर्म, आकाश तीनों को निष्क्रिय कहा है, इसका अर्थ उनमें देशान्तर प्राप्ति रूप गति का अभाव है, रूपान्तरण का नहीं। सांख्य के अनुसार परिणमन का आधार रजोगुण है, जिससे प्रत्येक वस्तु क्रियाशील है। परिणमन के विविध रूप
परिणमन तीन रूपों में होता हैं
1.धर्म परिणाम- किसी धर्म के तिरोभाव, अभिभव तथा प्रादुर्भाव से जो परिणमन होता है।
2.लक्षण परिणाम- कालगत परिवर्तन प्रत्येक वस्तु का भूत, वर्तमान एवं भावी रूप में परिणमन होता है।
3. अवस्था परिणाम-विद्यमान वस्तु में अवस्था परिवर्तन के कारण वैलक्षण्य देखा जाता है। वस्त्र का नया से पुराना होना, मनुष्य की शिशुत्व, बाल्य, कौमार्य, वार्धक्य आदि पर्यायें अवस्था परिणाम की सूचक है। परिणाम के गर्भ में आवृत अनागत वर्तमान हो जाता है। वही अतीत के अंचल में अव्यक्त रूप में विलीन हो जाता है। यह क्रम अनादि-निधन है। योग दर्शन में परिणाम की व्याख्या इस प्रकार है - चित्त त्रिगुणात्मक है। वह किसी भी अवस्था में रहे, क्रिया अनवरत चलती रहती है। क्रियाओं के द्वारा जो परिवर्तन चित्त में होता है, वही परिणाम है।' परिणमन की सीमा
परिणमन में काल, स्वभाव, नियति, कर्म,यदृच्छा और पुरूषार्थ आदि अनेक तत्त्वों का योगदान रहता है। द्रव्य के स्वरूप, उसके उपादान तथा निमित्तमूलक कार्यकारण व्यवस्था पर ध्यान दें तो विश्व में कुछ बातें नियत हैं, उनका अतिक्रमण संभव नहीं। जैसे
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया