________________
भेदों में परिगणित किया गया है। टीकम डोसी ने संवर के दो प्रकार बतलाये हैं- 1. निवर्तक 2. प्रवर्तक। अप्रमाद आदि में प्रवृत्ति को प्रवर्तक संवर माना है।60
__आचार्य भिक्षु का इस विषय में मतभेद है। उनके अनुसार संवर निरोधात्मक है, वह प्रवर्तक नहीं हो सकता। उपर्युक्त सभी प्रवृत्तियां निर्जरारूप हैं, इनसे निर्जरा तो निश्चित होती हैं, संवर नहीं। संवर कर्मों के आगमन का निरोधक है जबकि निर्जरा पुराने कर्मों को तोड़ती है। दोनों के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं। अतः संवर में शुभ प्रवृत्तियों का समावेश नहीं हैं। इस तथ्य की पुष्टि करते हुए उनका मानना है कि प्रथम और तृतीय गुणस्थान में आश्रव बीस होते हैं जबकि दूसरे एवं चतुर्थ गुणस्थान में मिथ्यात्व को छोड़कर उन्नीस आश्रव हैं। दूसरे और चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व है पर संवर नहीं। क्योंकि वहां प्रत्याख्यान का अभाव है।
चौथा गुणस्थान सम्यक्त्व प्रधान है फिर भी वहां संवर नहीं है। इस संदर्भ में जयाचार्य ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा हैं कि सिद्धों में सम्यक्त्व होने पर भी संवर नहीं हैं, वैसे ही त्याग के अभाव में दोनों गुणस्थानों में संवर नहीं है।62
अविरति भाव-शस्त्र है, जैसे बारुद आग का संयोग मिलते ही विस्फोट कर देता है, वैसे ही निरकुंश इच्छाएं निमित्त मिलते ही पाप में प्रवृत्त हो जाती हैं इसलिये आशा-वाञ्छा रूप अविरति को आश्रव कहा है।
सूत्रकृतांग में महावीर ने कहा- प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक अष्टादश पापों से जो विरत होता है, सावद्य क्रिया रहित, हिंसा रहित, क्रोध,मान, माया
और लोभ रहित, उपशान्त और परिनिर्वृत होता है, ऐसा संयत, विरत, प्रतिहत, प्रत्याख्यात-पाप-कर्मा आत्मा अक्रिय, संवृत और एकान्त पण्डित है।63
इससे भी स्पष्ट है कि अविरति आश्रव का निरोध पाप के प्रत्याख्यान से होता है। स्थानांग में अष्टादश पापों की विरति का उल्लेख है।64 यह विरति छठे गुणस्थान में पूर्णता को प्राप्त हो जाती है। इस गुणस्थान में सावध (पापकारी) कार्यों का सर्वथा त्याग हो जाता है। गुणस्थान और संवर क्रिया
छठे गुणस्थान में सर्व विरति हो जाती है फिर भी प्रमाद, कषाय और योग आश्रव विद्यमान रहता है। आठवें गुणस्थान में शुभलेश्या, शुभयोग, कषाय आश्रव भी है। ग्यारहवें गुणस्थान में कषाय का उपशम होने पर कषाय संवर होता है। सातवें गुणस्थान
242
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया