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(1) दो प्रकार
प्रथम परम्परा के अनुसार संवर के दो प्रकार हैं- द्रव्य संवर और भाव संवर। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्परा में ये भेद मान्य हैं। ___1. ये दो परम्परा तत्त्वार्थसूत्र नवतत्त्व साहित्य संग्रह तथा अन्य अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध है।37(क)
2. चार संवर सूचक की परम्परा आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा सम्मत है।
3. तीसरी, चौथी और पांचवी परम्परा आगमिक है। ठाणांग, प्रश्नव्याकरण के आधार पर एक-एक आश्रव का एक-एक प्रतिपक्षी संवर है।
4. विकल्प से चौथी परम्परा के अन्तिम 15 भेद विरत संवर के ही भेद है। इस तरह दोनों परम्पराएं एक ही है, केवल संक्षेप-विस्तार की अपेक्षा से ही दो कही जा सकती है।
5. संवर के 57 भेदों की परम्परा- तत्त्वार्थ सूत्र के गुच्छ क्रम से ही 57 भेदों का विवेचन किया है।
इनकी परिभाषाएं निम्नानुसार हैं
1. कर्माणुओं को रोकने वाला द्रव्य संवर, द्रव्याश्रव की निरोधक चैतसिक अवस्था का नाम भाव संवर है।
2. जलमध्यगत नौका के छिद्रों का, जिन से अनवरत जल का प्रवेश होता है, बंद करना द्रव्य संवर है। जीव-द्रोणी में कर्म-जल के आश्रव के हेतुभूत इन्द्रियादि छिद्रों का समिति आदि से निरोध करना भाव संवर है।38
3. मोह, राग-द्वेष रूप परिणामों का निरोध भाव संवर है। भाव संवर के निमित्त से योग द्वारों से शुभाशुभ कर्म परमाणुओं का निरोध होना द्रव्य संवर है। 39
4.जो चैतसिक परिणाम कर्मों के आश्रव के निरोध में हेतु होता है, वह भाव संवर है। द्रव्याश्रव के अवरोध में जो हेतु होता है, वह द्रव्य संवर है। 40
(2) चार प्रकार- श्वेताम्बर परम्परा में संवर के चार प्रकार भी माने गये हैं- 41 1. सम्यक्त्व संवर, 2. विरति संवर, 3. कषाय संवर, 4. योगाभाव संवर ।
क्रिया और अन्तक्रिया
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