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वहां कर्म का भौतिक स्वरूप मान्य नहीं हैं। अत: संवर का तात्पर्य शारीरिक क्रिया या ऐन्द्रिक प्रवृत्तियों का संयम ही अभिप्रेत है।
संवर शब्द 'वृ' धातु से निष्पन्न है। 'वृ' धातु का अर्थ है - निरोध करना । शारीरिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं का निरोध संवर है। आचार्य पूज्यपाद के अनुसार जो शुभाशुभ कर्मों के आगमन का द्वार है, वह आश्रव है। आश्रव का निरोध करना संवर है। 35
संवर केवल अशुभ आश्रवों के निग्रह का ही हेतु नहीं अपितु वह शुभ - आश्रवों का भी नियमन करता है। यह निवृत्ति परक है। प्रवृत्ति मात्र आश्रव है। निग्रह मात्र संवर है। मोक्ष के साधक-बाधक तत्त्वों की चर्चा में आश्रव को बाधक और संवर साधक माना है।
कहा गया – ‘आश्रवः भव हेतु स्यात्, संवरो मोक्ष कारणम्', संसार वृद्धि का प्रधान हेतु आश्रव और मोक्ष का प्रधान हेतु संवर है। 36 कर्म - मुक्ति की प्रक्रिया में निर्जरा उपादान कारण है किन्तु संवर के अभाव में उसका अधिक मूल्य नहीं रह जाता हैं। वस्तुतः ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
आचार्य भिक्षु ने संवर के स्वरूप को सोदाहरण स्पष्ट किया है। 37 तालाब के नाले को अवरूद्ध करने की तरह जीव के आश्रव का निरोध करना संवर है। मकान के द्वार को बंद करने की तरह जीव के आश्रव का निरोध करना संवर है। नौका के छिद्र को निरूद्ध करने की तरह जीव के आश्रव का निरोध करना संवर है। संवर और आश्रव के पारस्परिक सम्बन्ध तथा संवर के स्वरूप का यह स्पष्ट निदर्शन है। योगादि आश्रवों का सर्वथा निरोध करने पर संवृत जीव के प्रदेशों में कर्म द्रव्य का प्रवेश नहीं होता।
श्रव के जितने प्रकार हैं उतने ही प्रकार संवर के है। इनकी अन्तिम संख्या का निर्धारण असंभव है। व्यावहारिक दृष्टि से संवर के भेदों की निश्चित संख्या का प्रतिपादन करने वाली अनेक परम्पराएं प्राप्त हैं। उनमें मुख्य ये है
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1. दो संवर की परम्परा
पांच संवर की परम्परा
5. दस संवर की परम्परा
7. सत्तावन संवर की परम्परा
3.
2. चार संवर की परम्परा
4. आठ संवर की परम्परा
6. बीस संवर की परम्परा
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या: क्रिया